जैन दर्शन के सिद्धांत जैन दर्शन के स्तंभ के समान : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जैन दर्शन के सिद्धांत जैन दर्शन के स्तंभ के समान : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन विश्‍व भारती, 21 जनवरी, 2022
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन दर्शन के अनेक सिद्धांत हैं, जो जैनदर्शन के स्तंभ के समान हैं। आत्मवाद जैन दर्शन का एक मजबूत स्तंभ है, जहाँ आत्मा का शाश्‍वत अस्तित्व प्रगट होता है। शरीर और आत्मा का पार्थक्य सामने आता है। स्थूल शरीर अस्थायी और आत्मा स्थायी है। स्थायी-अस्थायी सापेक्ष बातें हो सकती हैं। जैन दर्शन नित्यानित्यवाद में विश्‍वास करता है। केवल नित्य ही ऐसा कोई पदार्थ नहीं और केवल अनित्य ही है, ऐसा भी कोई पदार्थ नहीं। ध्रोव्य उसमें है तो पर्याय भी इसमें होता है। ऐसा कोई द्रव्य नहीं जो पर्यायविहीन या द्रव्य विहीन हो। दोनों का साहचर्य होता है। प्राधान्य और गौणत्व हो सकता है। जैन दर्शन पदार्थ को नित्यानित्य मानता है। परंतु कहीं नित्यता का प्राधान्य और कहीं अनित्यता का प्राधान्य पदार्थों में देखा-जाना या विवक्षा की जा सकती है। आत्मा के जो असंख्य प्रदेश हैं, उनमें एक भी प्रदेश टूट नहीं सकता। आत्मा अछेद‍्य, अदाह्य, अंकलेश है, अशौण्य है। इसलिए आत्मा की शाश्‍वतता है कि आत्मा का एक भी प्रदेश कभी न तो अलग हुआ है, न कभी होगा। आत्मवाद यानी आत्मा त्रैकालिक है। वो शाश्‍वत के रूप में त्रैकालिक है। आत्मा फैले तो पूरे लोकाकाश के प्रदेश पर अवगाढ़ हो जाए। इतनी विराट हो जाती है। आत्मा के उतने ही प्रदेश हैं जितने ही लोकाकाश के प्रदेश हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और एक जीव के प्रदेश तुल्य होते हैं। जैन दर्शन में आत्मवाद के सिवाय, कर्मवाद का सिद्धांत भी बताया है। आत्मा कैसे कर्म बंध करती है, संक्रमण करती है, आदि-आदि कितने नियम-व्यवस्थाएँ कर्मवाद की होती है। कर्मवाद का विराट ज्ञान ग्रंथों में प्राप्त है। पुनर्जन्म भी कर्मवाद से जुड़ा है। व्यापक विषय व जैन दर्शन का व्यापक दूसरा स्तंभ कर्मवाद है। जैन दर्शन में काफी विस्तृत वर्णन कर्मवाद का प्राप्त होता है। अन्य दर्शनों में भी कर्मवाद का वर्णन मिलता है। जैन दर्शन का एक वाद हैलोकवाद। ये ब्रह्मांड, ये दुनिया क्या है, कैसी है, छ: द्रव्य क्या हैं? पदार्थ नौ हैं। छ: में नौ का समावेश किया जा सकता है। पर दोनों वर्गीकरण का अलग-अलग आधार है। विश्‍व क्या है, इसका जवाब देने के लिए सत्-द्रव्यपाद की उत्पत्ति हुई है। अस्तित्ववाद को भी छ: द्रव्यों से बताया जा सकता है। आत्मवाद को समझने व क्या करणीय क्या हेय, गेय, उपादेय यह जानने के लिए नौ तत्त्वों को समझो तो मोक्ष की दिशा में, आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकते हो। हमारी साधना के लिए उपयोगी क्या है, तो इन नौ तत्त्वों को बताएँ। पूज्य गुरुदेव तुलसी के समय आगम संपादन का कार्य शुरू हुआ था। आचार्य महाप्रज्ञ जी तो आगम संपादन में रीढ़ की हड्डी के समान थे। उनका कितना श्रम-समय लगा है। उनकी प्रतिभा-मनीषा का उपयोग हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञ जी के समय आत्मवाद, कर्मवाद, लोकवाद पर ग्रंथ लिखने की योजना बनी थी, वो ग्रंथ बाद में सामने भी आया है। आ भी रहे हैं। आगम के प्रकाशन तो प्राय: सभी का हो चुका है। कुछ बाकी है, वो निकट भविष्य में आने वाले हैं। जैविभा तो ज्ञान का स्थान है। यह तो ज्ञानाराधना परिसर है। जहाँ रहे वहीं काम करें। कार्य आगे बढ़ते रहें। जैन दर्शन के ये आत्मवाद, कर्मवाद, लोकवाद और क्रियावाद सिद्धांत हैं। स्वाध्यायशील साधु-साध्वियाँ, समणियाँ हैं, जितना अनुकूल टाइम हो आगमों का स्वाध्याय करते हैं। आगम को पढ़ते-पढ़ते अच्छी खुराक मिल सकती है। ज्ञान बढ़ता है। यथार्थ का साक्षात्कार भी हो सकता है। सभी स्वाध्याय करने का प्रयास करते रहें।  पूज्यप्रवर की अभिवंदना में कई साध्वियों की प्रस्तुति हुई। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि कई सिंघाड़े अपने मुखिया या सहवर्ती से विमुक्‍त होकर आए हैं। जीवन में आना-जाना चलता रहता है। सभी साधना में अच्छी गति-प्रगति करें।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में आज साध्वी शशिप्रभाजी, साध्वी राजकुमारी जी, साध्वी यशोमतिजी, साध्वी प्रफुल्लकुमारी जी, साध्वी अमितप्रभाजी, साध्वी शशिरेखाजी, साध्वी परमयशा जी, साध्वी रतिप्रभाजी, साध्वी विशदप्रज्ञा जी, साध्वी संगीतश्रीजी आदि साध्वियों ने अपने वक्‍तव्य एवं श्रद्धा गीतों से पूज्यप्रवर का वर्धापन किया। परिसर भ्रमण के क्रम में परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी जैन विश्‍व भारती में साधना के लिए नवनिर्मित आचार्य तुलसी इंटरनेशनल प्रेक्षा मेडिटेशन सेंटर के भवन में पधारे। भवन के संदर्भ में अवगति प्राप्त कर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने साधना कक्ष में विराजमान होकर लोगों को ध्यान का प्रयोग भी कराया। आचार्यश्री ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि यहाँ साधकों को साधना की अच्छी खुराक मिलती रहे, योग-साधना आदि का अच्छा उपक्रम चलता रहे और निरंतर विकास होता रहे। आचार्य तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के समय प्रेक्षाध्यान का प्रादुर्भाव हुआ। जैविभा में पहले निडम था और अब इस केंद्र से और विराट रूप सामने आ रहा है। मुख्यमुनि महावीर कुमार जी, मुनि कुमारश्रमण जी, मुनि कीर्तिकुमार जी, समणी नियोजिका अमलप्रज्ञाजी व जैन विश्‍व भारती के अध्यक्ष मनोज लुणिया ने भी अपने विचार व्यक्‍त किए। इससे संबंधित लोग आचार्यश्री के पदार्पण से भाव-विभोर बने हुए थे। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि ॠषि महान प्रसाद वाले होते हैं। तेरापंथ के आचार्यों में विनम्र होना आश्‍चर्य नहीं है, ऐसा आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी फरमाते थे।