अद्वितीय समर्पण के प्रेरक एवं पर्याय पुरुष आचार्यश्री भारमलजी

अद्वितीय समर्पण के प्रेरक एवं पर्याय पुरुष आचार्यश्री भारमलजी

साधना के क्षेत्र में समर्पण का सर्वोपरि महत्त्व रहा है। जब तक व्यक्‍ति अपने इष्ट के प्रति, गुरु के प्रति, लक्ष्य के प्रति, साधना के प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित नहीं होता, तब तक वह किसी भी उपलब्धि को हासिल नहीं कर सकता। किसी भी व्यक्‍ति ने कुछ हासिल किया है तो वह समर्पित होकर ही किया है। आस्था श्रद्धा, विश्‍वास और प्रतीति के अभाव में समर्पण का होना संभव नहीं है। तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित होने वाले प्रत्येक व्यक्‍ति को जन्मघुट्टी के रूप में संघ और संघपति के प्रति समर्पण का पाठ पढ़ाया जाता है। व्यक्‍ति का विकास समर्पण में निहित है। तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यश्री भिक्षु प्रथम आचार्य थे। वैसे तो संघ व संघपति के प्रति हर सदस्य का समर्पण भाव होता है, किंतु कुछ ऐसे शिष्य होते हैं जिनका समर्पण विशिष्ट होता है और वे समर्पण के प्रतीक पुरुष के रूप में ख्यातनामा होते हैं। वर्तमान में आचार्यश्री भारमलजी स्वामी की महाप्रयाण की द्विशताब्दी का प्रसंग हमारे सामने है। आचार्यश्री भारमल जी का आचार्यश्री भिक्षु के प्रति विशिष्ट समर्पण भाव था। उनके रोम-रोम में आचार्यश्री भिक्षु के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव था। आचार्यश्री भिक्षु हर शब्द आचार्य भारमलजी के लिए ब्रह्म वाक्य था। अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो आचार्यश्री भारमलजी स्वामी का स्वामीजी के प्रति समर्पण का महान उदाहरण कहा जा सकता है। जब आचार्य भिक्षु ने स्थानक वासी संप्रदाय से अभिनिष्क्रमण किया था एवं तेरापंथ की स्थापना की तब आचार्यश्री भारमलजी के संसारपक्ष में पिता किशनोजी, जो आचार्यश्री भिक्षु के साथ थे किंतु प्रकृति की उग्रता के कारण उनको साथ रखना नहीं चाहते थे। इसीलिए किशनो जी ने अपने पुत्र मुनि भारमल जी को अपने साथ ले गए। यद्यपि मुनि भारमलजी का मानस आचार्यश्री भिक्षु के प्रति था। वे आचार्य भिक्षु के प्रति पूर्ण समर्पित थे। अत: भारमल जी स्वामी ने अपने पिता मुनि किशनोजी के साथ रहते हुए चारों आहार-पानी का परित्याग कर दिया। लगभग दस दिन बीत गए पर उन्होंने न कुछ खाया व पीया। क्योंकि उनके मन में गुरु व साधना के प्रति समर्पण का भाव था। आखिर पिता मुनि किशनो जी का मुनि भारमलजी को लेकर आचार्य भिक्षु को सौंपना पड़ा। इतनी छोटी सी उम्र में गुरु के प्रति समर्पण का भाव विशिष्ट कहा जा सकता है। ईर्या समिति की घटना भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। एक बार आचार्य भिक्षु ने कहाभारमल तुम्हारी ईर्या समिति से संबंधित कोई दोष यानी गलती बताएगा तो मुझे एक तेला करना होगा। मुनि भारमलजी ने कहातहत् स्वामीनाथ! किंतु मेरे मन में एक जिज्ञासा है कि मेरी गलती पर तेला करना ठीक है परंतु कोई झूठ ही शिकायत कर देगा तो क्या करना होगा। आचार्य भिक्षु ने कहाभारमल-तेला तो तुझे करना ही होगा चाहे सही अथवा गलत कैसी भी शिकायत क्यों न हो। यदि सही शिकायत हो तो समझ लेना उसका प्रायश्‍चित हो गया और गलत हो तो समझ लेना कि मेरे पूर्व कर्मों का उदय हुआ है। पर तेला तो तुझे करना ही है। मुनि भारमलजी ने समर्पण भाव से गुरु के वचनों को तहत् गुरुदेव के साथ स्वीकार किया। इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मसंघ में समर्पण का प्रारंभ से ही महत्त्व रहा है। इसी समर्पण के आधार पर तेरापंथ में विकास के नव द्वारों का उद्घाटन हुआ है। आज भी प्रत्येक साधु-साध्वियों में संघ व संघपति के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव है। आज्ञा, अनुशासन, मर्यादा, व्यवस्था व गुरु के प्रति समर्पण व्यक्‍ति को ऊँचाइयाँ प्रदान करता है। कहा जा सकता है ज्ञान-ध्यान व्याख्यान, तप-जप से पूर्व समर्पण सर्वोपरि है। इसके अभाव में सबका होना महत्त्व नहीं रखता। आचार्यश्री भारमल जी सर्वात्मना समर्पित आचार्यश्री भिक्षु के प्रति। स्वयं स्वामीजी ने उनकी अनेक प्रकार से परीक्षाएँ लीं और भारमल जी स्वामी हर प्रकार की कसौटी में खरे उतरे। समर्पण के साथ आचार्यश्री भारमल जी स्वामी एक स्थिर योगी, स्वाध्यायशील व आगमज्ञ आचार्य थे तथा लिपिकला बेजोड़ थी। ऐसे महायोगी क्रांतद‍ृष्टा आचार्यश्री भिक्षु पट्टधर पुरुष समर्पण के पर्याय आचार्यश्री भारमलजी स्वामी के महाप्रयाण द्विशताब्दी पर अनेकश: वंदना!