धर्मसंघ की अप्रतिम साध्वीप्रमुखा  है - साध्वीश्री कनकप्रभाजी

धर्मसंघ की अप्रतिम साध्वीप्रमुखा है - साध्वीश्री कनकप्रभाजी

जैन शासन का एक विशिष्ट धर्मशासन है तेरापंथ एक आचार्य की अनुशासना में चलने वाला यह इकलौता धर्म शासन है। वरना आर्यवर्त की भरत भूमि पर चलने वाले इस क्षेत्र में अनेक संप्रदाय हैं, जिनमें अनेक आचार्य अपने-अपने ढंग से चलते हैं। यह तो आचार्यश्री भिक्षु की दूरगामी सोच ने एक लोह लकीर खींच दी कि यह धर्मसंघ स्वत: ही एक आचार्य केंद्रित हो गया। और यह एक लकीर है जिस कारण ही आज यह जैन धर्म का पर्याय बना हुआ है। तेरापंथ का सद् भाग्य या मैं इसे सौभाग्य कहूँ कि धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमद् जयाचार्य ने समयानुकूल कुछ ऐसी ही व्यवस्थाओं को जन्म दिया जिससे तेरापंथ और अधिक मजबूत हो गया। युगानुकूल साध्वियों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर ‘साध्वीप्रमुखा’ के रूप में एक पद का सृजन किया और सर्वप्रथम ‘साध्वीप्रमुखा’ के लिए साध्वी सरदारांजी को उस पद पर प्रतिष्ठित किया। जिससे आचार्यों को साध्वियों की सार-संभाल और व्यवस्था करने में अच्छा योगदान मिल गया। इस प्रकार साध्वीप्रमुखाओं का एक व्यवस्थित क्रम बन गया। साध्वीप्रमुखा कौन बने यह निर्णय स्वयं आचार्यों पर है। जब जिसको उपयुक्‍त समझते हैं उन्हें साध्वीप्रमुखा बनाया जाता है।
वर्तमान में आचार्यश्री तुलसी ने आठवीं साध्वीप्रमुखा के लिए साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी को यह पद वि0सं0 2028 गंगाशहर में दिया। तब से अब तक निरंतर 50 वर्षों से साध्वीप्रमुखाजी अपनी सेवाएँ दे रही हैं। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी, आचार्यश्री महाप्रज्ञ को अपनी अमूल्य सेवाएँ दी हैं एवं वर्तमान में आचार्यश्री महाश्रमण को अहर्निश अपनी सेवाएँ दे रही हैं। पचास वर्षों से इस प्रकार सेवा देना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। ये धर्मसंघ में आठवीं साध्वीप्रमुखाजी हैं। आठ का अंक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जैन साधु साध्वियों के लिए आठ प्रवचन माताएँ होती हैं, आठ सिद्धियाँ, आठ प्रतिहार्य, आठ रुचक प्रदेश, आठ मदस्थान और आठ आत्माएँ होती हैं। वैसे आठ में ठाठ होता है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी अप्रतिम साध्वी हैं, जिनका जीवन आचार्यों के प्रति तो सदा समर्पित रहा है, किंतु संतों के प्रति भी सदैव विनम्रता के साथ पेश आती है। इन्होंने अपनी सहजता, सरलता, विनम्रता, विशालता, कार्य-कुशलता, सहिष्णुता से पूरे ही धर्मसंघ के सभी सदस्यों में अपना विशिष्ट स्थान व पहचान बनाई है। विलक्षण है इनके सेवा भावना, सहिष्णुता एवं उदारता जैसे महान गुण सचमुच महानता के इन्हीं गुणों के कारण आचार्यश्री तुलसी ने इन्हें ‘महाश्रमणी’ एवं ‘संघ महानिदेशिका’ जैसे दो विशिष्ट संबोधनों से संबोधित किया। परम श्रद्धेय आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भी ‘असाधारण साध्वीप्रमुखा’ के रूप में प्रतिष्ठित कर इनका गौरव बढ़ाया है।
वस्तुत: साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी का इतने प्रलंब काल से तीन-तीन आचार्यों की सेवा प्राप्त करना महान सौभाग्य की बात है। आचार्यों के इस इंगित को समझकर कार्य को अंजाम देना आंतरिक विवेक जागरण का सूचक है। नव दीक्षित व बाल साधुओं के लिए तो सदा ही प्रेरणा ोत रही हैं। इनकी शुभ प्रेरणा से अनेक संतों ने अपनी विकास की धारा बहाई है। साध्वीप्रमुखाश्री ने अपने जीवनमें साहित्य की अज धारा बहाई है और एक विशेष वर्चस्व स्थापित किया है। इनकी प्रवचन विधा में हमेशा नवीनता के दर्शन होते हैं। साहित्य चाहे वह गद्य में अथवा पद्य में, दोनों ही लेखन मे कुछ नए-नए शब्दों व भावों का चयन श्रोताओं व पाठकों को नई खुराक सी मिलती है। अनुभव से अनुप्राणित इतनी साहित्य रचना एक अमूल्य धरोहर है जो सुधि पाठकों को कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती है। क्योंकि इनका विशाल चिंतन हृदय की गहराइयों को छूने वाला है।
महाश्रमणी संघ महानिदेशिका, असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के साध्वीप्रमुखा पद के पचास वर्ष के उपलक्ष्य में अमृत महोत्सव पर इनके पावन पवित्र आभामंडल एवं चरणों में सदा सभक्‍ति वंदन करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि आप स्वस्थ व आत्मस्थ रहकर धर्मसंघ के सभी सदस्यों का मार्गदर्शन करती रहें तथा धर्मसंघ में अपनी प्रज्ञा के स्फुलिगं विकिरण करती हुई विहार करती रहे। धर्मसंघ का सौभाग्य है ऐसी साध्वीप्रमुखा को प्राप्त करना जिसका प्रारंभिक नाम था ‘कला’ अर्थात् कनकप्रभा लाडनूं। मैं पुन:-पुन: आपका अभिवादन करता हूँ। इसी भावना के साथ चार पंक्‍तियाँ

करता हूँ यशगान तुम्हारा कनक प्रभा
दिल से है सम्मान तुम्हारा कनक प्रभा,
दिल के ये अरमान हमारे कनक प्रभा।
माँ की मूरत सूरत तुझमें देख रहा,
दिल के ये अरमान हमारे कनकप्रभा॥