उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य सिद्धसेन

उच्च कोटि के साहित्यकार, दिग्गज विद्वान्, प्रकृष्टवादी सिद्धसेन श्‍वेतांबर परंपरा के आचार्य हैं। उनके उदार व्यक्‍तित्व, सूक्ष्म चिंतन-शक्‍ति और गंभीर दार्शनिक द‍ृष्टियों ने संपूर्ण जैन समाज को प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप दिगंबर-श्‍वेतांबर दोनों परंपरा के विद्वान् आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथों में आदर भाव सहित आचार्य सिद्धसेन का स्मरण किया है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र का मस्तक आचार्य सिद्धसेन की प्रतिभा के सामने झुक गया। उन्होंने अयोगव्यवच्छेदिका में कहा है
क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था, अशिक्षितालापकला क्व चैषा॥
सिद्धसेन की गूढ़ार्थक स्तुतियों के सामने मेरे जैसे व्यक्‍ति का प्रयास अशिक्षित व्यक्‍ति का आलाप मात्र है।
आचार्य सिद्धसेन ब्राह्मण वंश और कात्यायन गोत्र के थे। उज्जयिनी में उनका जन्म हुआ। पिता का नाम देवर्षि और माता का नाम देवश्री था। उज्जयिनी पर उस समय विक्रमादित्य का राज्य था। देवर्षि राजमान्य ब्राह्मण थे।
सिद्धसेन प्रकांड विद्वान् थे। वैदिक दर्शन का उन्हें गंभीर ज्ञान था। न्याय, वैशेषिक, सांख्य आदि विविध दर्शनों पर भी उनका आधिपत्य था। शास्त्रार्थ करने में उनकी विशेष रुचि थी। सिद्धसेन को अपने प्रकांड पांडित्य पर भारी अभिमान था। वे अपने को दुनिया में सर्वथा अपराजेय मानते थे। शास्त्रार्थ में हार जाने पर विजेता का शिष्यत्व स्वीकार कर लेने में वे द‍ृढ़प्रतिज्ञ थे। वादकुशल आचार्य वृद्धवादी के वैदुष्य की चर्चा सर्वत्र प्रसारित हो रही थी। उनसे शास्त्रार्थ करने की उदग्र इच्छा सिद्धसेन में थी। एक बार मार्ग में विद्वान् सिद्धसेन का आचार्य वृद्धवादी से मिलन हुआ। परस्पर के वार्तालाप से एक-दूसरे का परिचय खुला। सिद्धसेन ने वृद्धवादी के सामने शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। आचार्य वृद्धवादी विद्वानों की गोष्ठी में शास्त्रार्थ करना चाहते थे, पर अति उत्सुक सिद्धसेन के आग्रह पर उनके प्रस्ताव को आचार्य वृद्धवादी ने स्वीकार कर लिया। गोपालकों ने मध्यस्थता की। शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। प्रथम वक्‍तव्य विद्वान् सिद्धसेन ने दिया। वे सानुप्रास संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह बोलते गए। गोपालकों की समझ में उनका एक भी शब्द नहीं आया। वे उन्मुख होकर बोले‘पंडित! कब से अनर्गल प्रलाप कर रहा है। तुम्हारी कर्णकटूक्‍ति हमारे लिए असह्य हो रही है। चुप रह, अब इस वृद्ध को बोलने दें।’
सर्वज्ञत्व की निषेध सिद्धि विषय पर पक्ष प्रस्तुत कर विद्वान् सिद्धसेन बैठ गए। आचार्य वृद्धवादी खड़े हुए। उनकी प्रतिपादन शैली सरल एवं स्पष्ट थी। वाणी में मिस्री सा मिठास था। उन्होंने सर्वज्ञत्व सिद्धि पर वक्‍तव्य देना प्रारंभ किया और गोपालकों को संबोधित करते हुए मधुर स्वरों में बोले
‘बंधुओ! तुम्हारे गाँव में कोई सर्वज्ञ है या नहीं?’ गोपालक बोला‘हमारे गाँव में एक जिन चैत्य है उसमें वीतराग सर्वज्ञ विराजमान हैं।’
उनके इस उत्तर के साथ ही सर्वज्ञत्व निषेध सिद्धि पर विद्वान् सिद्धसेन द्वारा प्रदत्त पांडित्यपूर्ण प्रवचन गोपालकों की द‍ृष्टि में व्यर्थ सिद्ध हो गया। तदनंतर आचार्य वृद्धवादी ने युक्‍तिपुरस्सर सर्वज्ञत्व को प्रमाणित किया।
अपने विचारों को सहज ग्रामीण भाषा में प्रस्तुत करते हुए वे पुन: बोले
कालउ कंवलु अनुनी चाटु छासिहिं खलडु भरिउति पाटु।
अई वडु पडियउ नीलइ झाड़ि अवर किसर गह सग्ग निलाडि॥
प्रस्तुत दोहे का राजस्थानी रूपांतरण इस प्रकार उपलब्ध है
काली कम्बल अरणी सट्ठ, छाछड़ भरियो दीवड़ मट्ठ।
एवड़ पड़ियो लीले झाड़, अवर कवण छै स्वर्ग विचार॥
शीत निवारणार्थ काली कंबल पास हो, हाथ में अरणि की लकड़ी हो, मटका छाछ से भरा हो और एवड़ को हरी घास प्राप्त हो गई हो, तो इससे बढ़कर अन्य स्वर्ग क्या हो सकता है? सुमधुर ग्रामीण भाषा में आचार्य वृद्धवादी द्वारा स्वर्ग की परिभाषा सुनकर गोपालक जय-जय का घोष करते हुए नाच उठे। उन्होंने कहा‘वृद्धवादी सर्वज्ञ हैं। श्रुति-सुखद उपदेश के पाठक हैं। सिद्धसेन अर्थहीन बोल रहा है।’
प्रभावक चरित्र के अनुसार यह शास्त्रार्थ अवन्ति के मार्ग में हुआ था।
(क्रमश:)