संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह

(5) मिथ्यात्वमविरतिश्‍च, प्रमादश्‍च सकषायक:।
सूक्ष्मात्माऽध्यवसायस्य, स्पन्दरूपा: प्रवृत्तय:॥
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायये चार सूक्ष्म-अव्यक्‍त प्रवृत्तियाँ हैं। इनमें आत्मा के अध्यवसायों का सूक्ष्म स्पंदन होता है।

(6) योग: स्थूला स्थूलबुद्धिगम्या प्रवृत्तिरिष्यते।
स्वतंत्रो व्यक्‍तिहेतुश्‍च, ह्यव्यक्‍तानां चतसृणाम्॥
योग स्थूलव्यक्‍त प्रवृत्ति है। वह स्थूल बुद्धि से जानी जा सकती है। वह स्वतंत्र भी है और पूर्वोक्‍त चारों अव्यक्‍त सूक्ष्म प्रवृत्तियों की अभिव्यक्‍ति का हेतु भी है।

(7) मिथ्यात्वमविरतिर्वा, प्रमाद: सकषायक:।
व्यक्‍तरूपो भवेद् योगो, मानसो वाचिकाऽङ्गिकौ॥
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायइन चार आवों को अभिव्यक्‍त करने वाला योग भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय कहलाता है, जैसेयोगरूप मिथ्यात्व, योगरूप अविरति, योगरूप प्रमाद और योगरूप कषाय। वह अभिव्यक्‍ति मानसिक, वाचिक और कायिकतीनों प्रकार की होती है।
मिथ्यात्वविपरीत श्रद्धा, तत्त्व के प्रति अरुचि।
अविरतिपौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्‍त लालसा।
प्रमादधर्माचरण के प्रति अनुत्साह।
कषायआत्मा की आंतरिक उत्तप्ति।
योगमन, वचन और काया की प्रवृत्ति।
प्रवृत्ति के पाँच प्रकार
प्रवृत्ति का पहला प्रकार हैमिथ्यात्व। यह सबसे खतरनाक है। इसमें व्यक्‍ति का द‍ृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता। ‘स्व’ और ‘पर’ का भेद नहीं होता। बुद्ध की भाषा में यह ‘अविद्या’ आव है। पतंजलि इसे अविद्या कहते हैं। अविद्या या मिथ्यात्व का उन्मूलन करना ही साधना का लक्ष्य है। धर्म की दिशा में यह प्रथम पदन्यास है। मिथ्यात्व की विद्यमानता में न तो तत्त्वों के प्रति श्रद्धा जागृत होती है और न सत्य के प्रति आकर्षण।
प्रवृत्ति का दूसरा प्रकार हैविरति। व्यक्‍ति का दर्शन सम्यग् नहीं होता है तब पदार्थों के प्रति आकर्षण न होने की बात केसे फलित हो सकती है? ऊपर-ऊपर विरति पल सकती है किंतु पदार्थों का मोह नहीं छूटता। एक पदार्थ या व्यक्‍ति से मोह छूटता है तो दूसरे के प्रति अधिक मोह जागृत हो जाता है। अविरति आंतरिक लालसा है। सत्य की शोध में बाहर से विकर्षण भी अपेक्षित है। किंतु इसके साथ-साथ आंतरिक आकर्षण का क्रम चलना नितांत स्पृहणीय है। अन्यथा वह विराग जीवंत नहीं हो सकता। प्रवृत्ति का तीसरा प्रकार हैप्रमाद। यह व्यक्‍ति को जागृत नहीं होने देता। स्व-विस्मृति में इसका बहुत बड़ा हाथ होता है। इसके बहुविध आवरण हैं। शराब, नींद, विकथा (जो बातें स्वयं से दूर ले जाती हैं), इंद्रिय-विषय और कषाय-प्रमाद को पुष्ट करने में ये पाँच महत्त्वपूर्ण सहयोगी हैं। इन अवस्थाओं में जीने का अर्थ हैस्वयं के प्रति अनुत्साह। सामान्यतया मनुष्य इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। ये वृत्तियाँ आदमी को भीतर झाँकने नहीं देती। प्रवृत्ति का चौथा प्रकार हैकषाय। कषाय प्रमाद के अंतर्गत होने पर भी प्रवृत्ति में उसका स्वतंत्र उल्लेख है। वह इसलिए कि आत्मा की क्रमिक अवस्थाओं में प्रमाद के छूट जाने पर भी वह आगे तक विद्यमान रहता है। उसके सूक्ष्मांशों के प्रति सचेत हुए बिना साधक को पुन: नीचे लौटना पड़ता है। क्रोध, मान, माया और लोभये कषाय के मुख्य अंग हैं। आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि में ये बाधक हैं।
प्रवृत्ति का पाँचवाँ प्रकार हैयोग। योग का अर्थ हैमन, वाणी और काया की चंचलता। मनुष्य का बाहरी रूप जो दिखाई देता है, वह सिर्फ बाहरी नहीं है, भीतर का प्रतिबिंब है। भीतर घटना घटती है और बाहर उसका विस्तार हो जाता है। मिथ्यात्व आदि आंतरिक और सूक्ष्म वृत्तियाँ हैं। सागर में बुदबुदे की भाँति ये भीतरी मन में उठती हैं और बाहर आकर छूट जाती हैं। मन सूक्ष्म योग है, वाणी स्थूल और काया स्थूलतम। वाणी और शरीर कार्य हैं, मन कारण है। और भी गहराई से देखा जाए तो मन भी कार्य है क्योंकि वह स्वतंत्र नहीं है। उसमें भी जो स्पंदन होता है, उसका ोत अन्यत्र है। समस्त प्रवृत्तियों का मूल कारण हैकार्मण शरीर-सूक्ष्म शरीर। मिथ्यात्व आदि प्रवृत्तियों का ोत है वह। कर्म से प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति से क्रिया, क्रिया से फिर कर्म-योग्य पुद्गलों का ग्रहण। इस दुश्‍चक्र से मुक्‍त होने के लिए निवृत्ति का दर्शन है। (क्रमश:)