आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

स्वभाव-परिवर्तन की प्रक्रिया : शरीर-प्रेक्षा

प्रश्‍न : शरीर-प्रेक्षा से संक्लेश कैसे मिट सकते हैं?
उत्तर : मानसिक संक्लेश के कारण हैंप्रियता और अप्रियता के भाव। शरीर के बारे में हमारी जो भ्रांत धारणाएँ हैं, उनके कारण राग और द्वेष बढ़ता है। राग-द्वेष संक्लेश के जनक हैं। केवल उपदेश के प्रभाव से रागात्मक या द्वेषात्मक भावों से छुटकारा पाना कठिन है। शरीर-प्रेक्षा के अभ्यास से शरीर के भीतर की सच्चाई ज्ञात होने लगती है। जैसे-जैसे सच्चाई ज्ञात होती है, भ्रांतियों का जाल टूटने लगता है।
भगवान बुद्ध को अनित्यता का अनुभव शरीर-प्रेक्षा से ही हुआ। उन्होंने जब देखा कि शरीर में प्रकंपन ही प्रकंपन हैं तो किसी भी पदार्थ को नित्य स्वीकार करने का मनोभाव ही समाप्त हो गया।
भगवान महावीर ने दीक्षा से पूर्व छह माह तक अनित्य-अनुप्रेक्षा का प्रयोग किया था। उनके इस प्रयोग में भी शरीर-प्रेक्षा ही कारण बनी थी। चक्रवर्ती भरत को आदर्श-भवन में केवल-ज्ञान उपलब्ध हो गया। क्यों? शरीर-प्रेक्षा ही तो उसमें निमित्त थी। शरीर को देखते-देखते उन्होंने अनित्यता का साक्षात्कार किया और कैवल्य मिल गया। बुद्ध, महावीर और भरत ने शरीर-प्रेक्षा की, शरीर के धर्मों को देखा, अनित्यता का बोध किया और उनके सारे संक्लेश समाप्त हो गए। संक्लेश तभी होता है, जब भीतर और बाहर एकरसता न हो, बाहरी अनुभूतियों के साथ आंतरिक अनुभूतियों का समंजस्य न हो। जो साधक इनमें सामंजस्य स्थापित कर लेता है, एकरस हो जाता है, उसे वातावरण का परिवर्तन भी प्रभावित नहीं कर सकता। हवा ठंडी चले या गर्म, शरीर-प्रेक्षा की गहराई में दोनों का ही अनुभव नहीं होता। शरीर के कण-कण में चेतना का संवेदन करने से शारीरिक और मानसिक अथवा बाहरी और आंतरिक सभी प्रकार के संक्लेश समाप्त हो जाते हैं।
प्रश्‍न : शरीर-प्रेक्षा के द्वारा बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बना लिया जाए तो फिर बाह्य वातावरण का प्रभाव नहीं होता। पर अंतर्मुखता की स्थिति इतनी सहज नहीं है। अंतर्मुखी बनने के लिए जिस साधना-क्रम से गुजरना पड़ता है, वहाँ से तो कुछ लोग ही गुजर सकते हैं। क्या ऐसी भी कोई प्रक्रिया है जो उस क्रम से गुजरने से पहले ही संक्लेश मिटा दे?
उत्तर : कुछ किए बिना ही संक्लेश मिट जाए, जीवन की समस्याओं का समाधान हो जाए तो मनुष्य को आलोड़न-विलोड़न की जरूरत नहीं होती। सीधा ही मक्खन मिल जाए तो दूध दुहने से लेकर उसे बिलोने तक की सारी क्रियाएँ कौन करे? आदमी कितना ही कुशल क्यों न हो, मक्खन के लिए उसे सारी प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ता है। कहा भी जाता है
दहीज माटे घालियो करैज जाझाजाझ॥ ठंडो उन्हो क्यूं करै? इक मक्खन कै काज॥
दूध का दोहन करना, उसे गर्म करना, ठंडा करना, उसका दही बनाना, उसे बिलोने में डालना और मथनी से मंथन कर झाग-झाग बना देना। इतना सब किसलिए किया जाता है? एकमात्र मक्खन के लिए।
शरीर में घटित सुख और दु:ख की संवेदना से ऊपर उठना, किसी भी प्रकार के संवेदन से होने वाले संक्लेश से मुक्‍त रहना भी साधना का नवनीत है। इसे पाने का अचूक उपाय हैशरीर-प्रेक्षा। इससे प्रमाद घटता है और जागरूकता बढ़ती है, प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त होता है तथा समत्व का विकास होता है।

शरीर-प्रेक्षा हैशक्‍ति-दोहन की कला

दोहन करना शक्‍ति का, साधन मात्र शरीर।
बिना नाव कब पा सके, नाविक भी पर-तीर?
प्रेक्षा करो शरीर की, है सीधी-सी बात।
मन को भीतर मोड़ लो, करो न फिर निर्यात॥
हर अवयव पर जो जमे, विधिवत पूरा ध्यान।
संवेदन होता रहे, आए क्यों व्यवधान?
अंतर शोधन के बिना, साध्य सिद्धि है दूर।
नहीं बहिर्मुख-चेतना, हो सकती रसपूर॥
बाहर जो अभिराम है, भीतर कैसा रूप।
राग-द्वेष-उपरत बनो, देखो आत्म-स्वरूप॥
प्रश्‍न : साधक की मंजिल हैआत्म-साक्षात्कार अथवा आत्मिक सुख की उपलब्धि। आत्मा को पाने के लिए आत्मा को साधने की अपेक्षा है। शरीर-प्रेक्षा इस उद्देश्य की पूर्ति में कहाँ तक सहायक हो सकती है? क्या शरीर के द्वारा आत्म-शक्‍ति का अनुभव किया जा सकता है?
उत्तर : साधना के उपक्रम में शरीर का बहुत महत्त्व है जिस प्रकार सोपान पर चले बिना ऊपर की मंजिल में जाना असंभव है, उसी प्रकार शरीर को साधे बिना आत्म-साधना संभव नहीं है। तर्क हो सकता है कि लिफ्ट मिल जाए तो सोपान का क्या करना है? सीधी छलाँग भरी जा सकती है। यह भी तो सोचने की बात है लिफ्ट किसे-किसे उपलब्ध होती है? वह उपलब्ध हो भी जाए और बीच में ही बिजली चली जाए तो त्रिशंकु बनकर रहना पड़ता है। इसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार का सीधा रास्ता भी किसी-किसी को मिल सकता है, पर बीच में कोई अवरोध उपस्थित होने पर उसे तोड़ने के लिए कौन आएगा? बाहुबली सीधा आत्म-साक्षात्कार करना चाहते थे। उनकी साधना भी विशिष्ट थी। किंतु अवरोध ऐसा आया कि तट तक पहुँचकर भी वे आगे नहीं बढ़ सके। साध्वी ब्राह्मी और सुंदरी ने उनको प्रतिबोध दिया। बाहुबली ने अवरोध का कारण समझा। वे संभले और अवरोध समाप्त हो गया। कैवल्य की ज्योति से उनका कण-कण आलोकित हो उठा। किंतु न तो सब बाहुबली होते हैं, न उन्हें ब्राह्मी सुंदरी का योग ही मिलता है और न ही वे सीधी छलाँग भर सकते हैं। इसलिए एक निश्‍चित विधि और प्रक्रिया के सहारे ही साधक को आगे बढ़ना चाहिए।
यद्यपि शरीर के बारे में कुछ अटपटी मान्यताएँ भी हैं। उनके अनुसार शरीर अशुद्ध है, अपवित्र है, विकृति करने वाला है। उसमें कोई सार तत्त्व नहीं है, इसलिए वह त्याज्य है। किंतु यह ऐकांतिक आग्रह है। वस्तुस्थिति यह है कि शरीर एक साधन है। उसका उपयोग इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार से किया जा सकता है। भगवान महावीर ने शरीर की तुलना नौका से की है
सरीरमाहु नावत्ति जीवो वुच्चइ नाविओ॥ संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरंति महेसिणो॥
शरीर नौका है। जीव नाविक है। संसार समुद्र है। महान लक्ष्य-मोक्ष की एषणा करने वाले इस समुद्र को उसके द्वारा पार कर लेते हैं। जिस प्रकार काष्ठमयी नौका समुद्र-संतरण में उपयोगी है, वैसे ही संसार-समुद्र का पार पाने के लिए शरीर-रूपी-नौका का आलंबन जरूरी है। क्योंकि सब प्रकार की साधना शरीर से ही हो सकती है। प्रश्‍न है दोहन करने का। दोहन करने की कला से जो परिचित है, वह शरीर के द्वारा विशिष्ट शक्‍ति का दोहन कर उसका उपयोग कर सकता है। (क्रमश:)