सेवा एवं सहयोग में निस्वार्थता का भाव रहना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सेवा एवं सहयोग में निस्वार्थता का भाव रहना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

आनंदपुरा, 10 जनवरी, 2022
कड़कड़ाती ठंड में 10 किलोमीटर विहार के पश्‍चात युग पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने टैगोर इंटरनेशनल स्कूल के प्रांगण में मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी दूसरे की शरण में भी जाता है। शरण में जाने का एक अर्थ यह हो सकता है कि आदमी कमजोर है। कमजोर है, तभी दूसरे की शरण में जाता है। स्वयं सबल है, सक्षम है, तो फिर दूसरे की शरण में क्यों आए, अपनी ही शरण में रहे। शरण में जाना दुर्बलता का प्रतीक हो सकता है, पर किसी को शरण देना ये तो सेवा-सहयोग का प्रतीक हो सकता है। जो अपने से ज्यादा समर्थ है, ऐसे व्यक्‍ति या ऐसे तत्त्व की शरण लेना लाभदायी भी हो सकता है। दुनिया में सहयोग भी आवश्यक होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया हैजीवों का परस्पर आलंबन-सहयोग का आदान-प्रदान होता है।
छ: द्रव्य जैन दर्शन में बताए गए हैं। ये भी सहयोग देते हैं, सहयोग मिलता है। अजीव द्रव्य भी जीवों के पुद्गलों की गति-स्थिति में सहायता करता है। लोकाकाश के बाहर आत्माएँ इसलिए नहीं जा सकती कि वहाँ पर धर्मास्तिकाय नहीं है। अधर्मास्तिकाय स्थिति में ठहरने में सहायता देता है। जीवों को स्थान देने वाला आकाश है। दुनिया में सबसे बड़ा तत्त्व आकाश है। पुद्गल भी कितने काम आते हैं। ये द्रव्य दूसरों को सहयोग देते हैं।
जीवास्तिकाय दूसरों से सहयोग लेता है, पर देता नहीं है। जीव आपस में जीव को सहयोग करता है। सहयोग धार्मिक भी होता है, सांसारिक भी होता है। सहयोग के बिना जिंदगी चलना भी मुश्किल है। एक रोटी खाते हैं, उसमें कितनों का सहयोग होता है। आदमी सोचे कि मैं दूसरों से सहयोग तो लेता हूँ पर दूसरों को क्या सेवा देता हूँ? हम साधु गृहस्थों का कितना सहयोग लेते हैं। साधु गृहस्थ को आध्यात्मिक सेवा दे सकता है। प्रवचन-प्रेरणा, दीक्षा, उपदेश देते हैं। आध्यात्मिक सेवा बहुत बड़ी सेवा है। लौकिक सेवा भी होती है। पर आत्मा का सहयोग तो त्याग-तपस्या से होता है। सेवा-सहयोग में निस्वार्थ-निष्काम भाव हो। तपस्या करो केवल निर्जरा के लिए करो, भौतिक कामना नहीं। सेवा में नाम जुड़ता है, तो सेवा में अबुद्धता आ सकती है। शास्त्रकार ने कहा है कि मित्र या सगे संबंधी तुम्हें त्राण देने वाले नहीं हैं। तुम भी उनको त्राण-शरण देने वाले नहीं हो। अंतिम त्राण धर्म है।
धर्म की शरण बड़ी है। धर्म का सहयोग तो परम तक पहुँचाने वाला है। केवली प्रज्ञप्त धर्म परम शरण है। धर्म की शरण लेना मतलब अपनी आत्मा की शरण में जाना है। धर्म आत्मा से अभिन्‍न हो जाता है। हमारे पूर्वाचार्यों ने कितनी धार्मिक-आध्यात्मिक शरण दी है। इन्होंने खुद को खुद की शरण से जोड़ने का प्रयास किया है।
राजस्थान का तेरापंथ धर्मसंघ का अभिन्‍न संबंध रहा है। लाडनूं की ओर विहार हो रहा है। वहाँ कितनी संस्थाएँ, सेवा केंद्र, भंडार आदि हैं। राजस्थान में धर्म की गंगा प्रवाहित रहे। हमारे श्रावक-श्राविकाएँ धर्म के उद्योत से प्रमुदित होता रहे। टैगोर विद्यालय में भी नैतिक शिक्षा मिलती रहे। टैगोर स्कूल की डायरेक्टर सारिका चौधरी ने पूज्यप्रवर के स्वागत में अपनी भावना अभिव्यक्‍त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।