अमृत घट छलके गण-आँगन

अमृत घट छलके गण-आँगन

परमपावन परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री महाश्रमण जी के पावन निर्देशन में तेरापंथ धर्मसंघ इस वर्ष श्रद्धेया महाश्रमणी असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री जी के 50वें मनोनयन दिवस को ‘अमृत महोत्सव’ के रूप में मनाने जा रहा है। मेरे मन में जिज्ञासा हुई, लोग किसी उपलब्धि के 25वें, 50वें एवं 75वें वर्ष की खुशी को सिल्वर (रजत), गोल्डन (स्वर्ण) एवं डायमंड जुबली (हीरक वर्ष) के रूप में मनाते हैं फिर चाहे वह जन्मदिन से संबंधित हो, शादी से संबंधित हो या फिर किसी और एचीवमेंट से। क्या कारण है पूज्य गुरुदेवश्री ने साध्वी प्रमुखाश्रीजी के 50वें मनोनयन उत्सव का अभिधान उपरोक्‍त नामों से हटकर ‘अमृत महोत्सव’ रखा। मैंने चिंतन के खुले आकाश में सैर की तो मुझे ख्याल आया कि हमने पूज्य गुरुदेवश्री तुलसी की शासना के 50वें वर्ष को ‘अमृत महोत्सव’ के रूप में मनाया था। हाल ही में कुछ वर्ष पूर्व हमने वर्तमान गुरुदेव आचार्यश्री महाश्रमण जी के 50वें जन्मदिन को भी ‘अमृत महोत्सव’ नाम से ही मनाया था और अब हम श्रद्धेया महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री जी के 50वें चयन दिवस को ‘अमृत महोत्सव अभिधान से मनाने जा रहे हैं। हमारे यहाँ उपलब्धि के 50वें वर्ष का नाम ‘अमृत महोत्सव’ क्यों दिया जाता है? साध्वीप्रमुखाश्री जी एवं अमृत का क्या संबंध हो सकता है? मैं इस जिज्ञासा का समाधान पर व्याकरण से प्राप्त करूँ उससे पहले मैंने अपनी ही बुद्धि से समाधान खोजने का प्रयास किया और उसके लिए मैं श्रद्धेया महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्रीजी की पावन सन्‍निधि में उनके सम्मुख जाकर बैठ गई। मैं खोजने लगीयहाँ अमृतमय क्या है? ‘जिन खोजा तिम पाइया, गहरे पानी पैठ’ मैं बहुत गहराई में चली गई। बाहर के द‍ृश्य ओझल हो गए। अंतर के पट खुलते चले गए। मैंने देखाएक शोभायमान मनहर सिंहासन के ऊपर एक छलाछल अमृत से भरा दीप्तिमान कनककुंभ प्रस्थापित था। उस मनोरम स्वर्णघट के पौर-पौर से अमृत रिस रहा था जिसकी भीनी-भीनी सुवास चारों ओर फैल रही थी। मैं चिंतन के पैरों से चलकर उस अमृत कुंभ के कुछ और निकट गई तो मैंने पायावहाँ श्रद्धेया महाश्रमणीजी विराजमान थीं। मैं असमंजस में पड़ गई। ये महाश्रमणीजी हैं तो वह घर कहाँ गया? अगले ही क्षण मुझे महाश्रमणीजी की जगह वह कनककुंभ दिखाई देने लगा। मुझे कभी महाश्रमणीजी के दर्शन हो रहे थे तो कभी उस अमृत घट के। कुछ मिनिटों तक यह आँख-मिचौनी का खेल चलता रहा। आखिर मेरी समझ ने यथार्थ को पा ही लिया। वह अमृत कुंभ और कुछ नहीं श्रद्धेया महाश्रमणीजी ही थीं जिनके अंग-अंग एवं पौर-पौर से संपूर्ण तेरापंथ धर्मसंघ और प्राणीमात्र को आनंद से तृप्त करने वाला अमृत रस टपक रहा था। मैंने देखाजिनकी नयनों में विशाल साध्वी समाज, शैक्ष संत मुनिराज एवं सभी के प्रति वात्सल्यामृत झर-झर झर रहा था। जिनकी द‍ृष्टि में वृद्ध, ग्लान एवं रुग्ण साध्वीवृंद के प्रति करुणामृत बरस रहा था। जिनकी मुस्कान हर अवसाद ग्रस्त, शौक संतप्त को प्रसन्‍नतामृत बाँट रही थी। जिनके आशीर्वाद रूप में उठे हाथ से हर छोटी-बड़ी, शिक्षित-अल्पशिक्षित, होशियार-कमजोर साध्वी के लिए आश्‍वासनामृत की रश्मियाँ फूट रही थीं। जिनके वचनों में हर एक को लक्ष्य की स्मारणा कराने वाला, दोलायमान को सुस्थिर करने वाला शिक्षामृत एवं प्रेरणामृत उच्चरित हो रहा था। जिनके तनु रत्न के स्पर्श में आमर्शोषध्यामृत का अनुभव हो रहा था। जिनके चरणारविंदों में चरैवेति-चरैवेति का कल-कल नादामृत बह रहा था। जिनकी लेखनी संघ विकास एवं संघ भंडार भरने वाला रोहिण्यामृत बनकर संघाराम को सिंचन प्रदान कर रही थी। तो जिनकी करबद्ध नतमस्तक मुद्रा में पूज्यप्रवरों, संघ एवं स्वसाधना के प्रति समर्पणामृत झलक रहा था। संघ के शिखर पुरुषों से लेकर आबालवृद्ध हर एक साधु-साध्वी के लिए उस कनकामृतकुंभ के कण-कण से बहता अमृत रस ऐसा लग रहा था मानो गण के शिखर से अमृत का कोई ोत फूट पड़ा है। यही कारण है कि महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने जिसको भी अपनी कृपामयी द‍ृष्टि से देखा, जिसे हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया, जिसने भी आपके अमृत-वचनों का रसपान कर लिया,जो भी आपके श्रीचरणों में श्रद्धेयवनत हो गया, जिसे आपश्री की मनमोहक मुस्कान मिल गई उसके चित्त से चिंता, शोक, भय, व्याधि, डिप्रेशन, टेंशन आदि तुरंत ही दूर हो जाते हैं एवं उसके लिए शांति, आनंद, सुख, समाधि, स्वास्थ्य एवं सफलता के शतद्वार एक साथ खुल जाते हैं। मैं अपना सौभाग्य मानती हूँ कि समय-समय पर मुझे भी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी रूपी कनकामृत कुंभ की मधुर अमृत बूँदों का आस्वादन करने का मौका मिला है जो मेरे लिए ताजिंदगी न केवल एक बहुत बड़ी थाती बना हुआ है, बल्कि मेरे जीवन निर्माण की आधारशिला का स्थान लिए हुए है। सन् 1991 । जब मैं ब्राह्मी विद्यापीठ कॉलेज में बी0ए0 के प्रथम वर्ष की छात्रा समणी प्रसन्‍नप्रज्ञा थी। एक बार कॉलेज में कहानी कॉम्पीटीशन का आयोजन हुआ, जिसमें मेरी कहानी ने तृतीय स्थान प्राप्त किया। कॉलेज की तरफ से कहानी को ‘युवाद‍ृष्टि’ में प्रकाशनार्थ भेजा गया। मैं इस बात से अनभिज्ञ थी। प्रतिदिन की भाँति सायंकाल गुरुवंदना के समय में श्रद्धेय महाश्रमणीजी की उपासना हेतु ॠषभद्वार गई। मैंने महाश्रमणीजी को वंदना की। आपने अत्यंत वात्सल्य भाव एवं मधुर मुस्कान के साथ फरमाया‘आज तुम्हारी कहानी पढ़ी। तुमने देख ली क्या? मैं प्रश्‍नायित नजरों से उन्हें देखने लगी तो आपने पट्ट पर पड़ी युवाद‍ृष्टि को राउंडशेप करके मेरे हाथों में थमाते हुए फरमाया‘यह लो! अच्छी लिखी है। लिखने का अभ्यास करते रहना है।’ मैं आपश्री की उस अमृतमयी कृपाद‍ृष्टि को पाकर रोमांचित हो गई। उस दिन की उन अमृत बूँदों का ही प्रभाव है कि आज मैं अपने भावों को टूटी-फूटी भाषा एवं टेढ़ी-मेढ़ी लेखनी से यत्किंचित प्रस्तुत करने में समर्थ बनी हूँ। ऐसे एक नहीं अनेक प्रसंग हैं जो आपश्री की अमृत बूँदों का सिंचन पाकर मेरे जीवन की अमूल्य धरोहर बने हुए हैं। मेरी तरह न जाने कितने लोगों को श्रद्धेय महाश्रमणीजी ने अपनी अमृत बूँदों का सिंचन देकर सरसब्ज बनाया है जिसकी एक बानगी का साक्षी बनेगा अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित होने वाला अभिनंदन ग्रंथ जिसमें धर्मसंघ के अनेक साधु-साध्वियों एवं समणीजी ने अनेक विधाओं में उन अमृत बूँदों के रसपान के चमत्कार का जिक्र कर अपने आनंद को सबके साथ बाँटने का प्रयास किया है। श्रद्धेया महाश्रमणीजी के अमृतमय महनीय व्यक्‍तित्व एवं कर्तृत्व का मूल्यांकन करते हुए पूज्यप्रवरों ने आपश्री को न केवल अनेक प्रकार के अलंकारों से अलंकृत ही किया है बल्कि समय-समय पर आपश्री के प्रति संतुष्टि एवं तृप्तिप्रदायक जिन अमृत वचनों को उच्चरित किया है, अत्यंत आह्लादकारी है। कहा जाता है जिसे अमृत की प्राप्ति हो जाती है वह कभी मरता नहीं, अमर हो जाता है। तेरापंथ धर्मसंघ को आपश्री के रूप में जो अमृत प्राप्त हुआ है, आने वाली सहाब्दियों तक इस धर्मसंघ को अमर बनाने वाला है।
अमृत महोत्सव के मंगलमय अवसर पर मैं यह मंगलकामना करती हूँ कि परमपूज्य गुरुदेवश्री की पावन सन्‍निधि में आपश्री पूर्ण स्वस्थता एवं सक्रियता के साथ हमें चिरकाल तक इस अमृतपान का आह्वान कराती रहें तथा संघ की अमरता को सिंचन प्रदान कराती रहें। गण आँगन में आपश्री रूपी यह अमृत कुंभ सदैव छलकता रहे, यही शुभकामना निवेदन करती हूँ।