प्रभु महाश्रमण तुम मेरे अंतर के राम हो

प्रभु महाश्रमण तुम मेरे अंतर के राम हो

साध्वी प्रबुद्धयशा 

साध्वी चंद्रिकाश्रीजी में गीत बनाने की अपनी कला थी। वे सामान्यतया गीत कम बनाती थीं। पर जब भी बनाती भावों की गहराई में डूबकर बनाती थीं। तपस्या आदि प्रसंगों पर वे गीत बनाती। किंतु श्रद्धेया साध्वीप्रमुखाश्रीजी के चयन दिवस पर उनका गीत बनाना निश्‍चित था। भीलवाड़ा में गुरुदेव की उन पर असीम कृपा बरस रही थी। श्रद्धेया साध्वीप्रमुखाश्री जी, मुख्य नियोजिकाजी एवं कई साध्वियाँ उन्हें बार-बार प्रेरित कर रही थीं। गुरुदेव इतनी कृपा करवा रहे हैं गुरुदेव पर गीत बनाओ। वे कहतीतहत्! भाव है। उनकी प्रबल इच्छा थी मैं गीत बनाऊँ। किंतु उनके स्वास्थ्य एवं मस्तिष्क की स्थिति उनका साथ नहीं दे रही थी। उन्होंने अपनी भावना साध्वी जिनप्रभाजी के पास रखी। साध्वीश्रीजी ने उनकी पसंदीदा राम (प्रभु पार्श्‍व देव चरणों में) में उनके भावों को पिरोकर उन्हें सुनाया तो वे भावविभोर हो गुनगुनाने लगी।
प्रभु महाश्रमण तुम मेरे, अंतर के राम हो।
तेरे भक्‍तों की सूची, में मेरा नाम हो॥
तुम महासमंदर प्रभुवर, मैं उसकी बूँद हूँ।
तुम कल्पवृक्ष गणवन के, मेरा विश्राम हो॥1॥
तुम महासुमेरु गुरुवर, मैं रजकण हूँ उसकी।
इसमें नित रमण करूँ मैं, पाऊँ निजधाम हो॥2॥
वे साध्वीश्रीजी के प्रति कृतज्ञ थीं। जब भी गुरु के विषय में प्रसंग बनता तो उनके नेत्र सजल हो जाते थे। उनकी गुरुभक्‍ति बेजोड़ थी। मुंबई में जब चिकित्सक उन्हें बल दे रहे थे। साध्वीश्रीजी! मस्तिष्क शरीर का महत्त्वपूर्ण अवयव है। आपको इस स्थिति में रेडिएशन लेना पड़ेगा अन्यथा बहुत ज्यादा कठिनाई होगी। आप हमारी बात मान लें। तब उन्होंने सिंहगर्जना करते हुए कहाडॉक्टर साहब! मुझे तो भीलवाड़ा में मेरे गुरु के चरणों में जाना है। वे ही मेरा कल्याण करेंगे। मुझे अब यह चिकित्सा नहीं करानी है। डॉक्टर और मुंबई का श्रावक समाज विस्मित था। जब 11 अगस्त को उसने सुना कि साध्वीश्रीजी तो भीलवाड़ा पहुँच गई है। हम भीलवाड़ा क्या पहुँचे मानो उनकी पुण्याई शतगुणित हो गई। गुरुकृपा बरसने लगी। स्वयं साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने फरमाया“इसी गुरुकृपा तो कोई सौभाग्यशाली ने ही मिलै है। चंद्रिकाश्रीजी! थे तो परम सौभाग्यशाली हो। गुरुदेव थां पर कित्ती महान कृपा करवा रह्या है।”
गुरुकृपा के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंग जो सदा-सदा के लिए अविस्मरणीय बन गए।
आंनै लेर आग्या
दिनांक 11 अगस्त को जब हम मुंबई से भीलवाड़ा गुरुचरणों में पहुँचे तब उनको देखते ही परमपूज्य आचार्यप्रवर ने आंतरिक प्रसन्‍नता के साथ कृपा करवाते हुए फरमाया“जिनप्रभाजी! आंनै लेर आ गया।” साध्वीश्री ने कहागुरुदेव! आपकी शक्‍ति और इनकी गुरुभक्‍ति ही हमें यहाँ गुरुचरणों में ले आई। साध्वी चंद्रिकाश्रीजी ने निवेदन कियागुरुदेव! आपश्री ने महती कृपा कर मुझे मंत्र प्रदान करवाया। वह मेरा रक्षाकवच था। मुझे शक्‍ति दे रहा था। वह चामत्कारिक था। दो-तीन बार मंत्र का जप नहीं हुआ तो मुझे बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा।
प्रतिदिन गुरु सन्‍निधि प्रतिदिन मंगलपाठ
पूज्यप्रवर ने कुछ दिनों बाद जब सेवा करवाई तब फरमायाइसको प्रतिदिन गुरु सन्‍निधि मिलनी चाहिए। चाहे वह आधा मिनट हो या आधा घंटा। ये स्वयं पैदल चलकर आती हैं। कठिनाई हो तो व्हील चेयर से भी आ सकती है और भी कभी दिक्‍कत हो तो साध्वीप्रमुखाश्रीजी के माध्यम से हमें जानकारी मिल जाए। हम स्वयं दर्शन देने वहाँ आ जाएँगे। परमपूज्य आचार्यप्रवर की कृपा से उन्हें प्रतिदिन गुरु सन्‍निधि प्राप्त हुई। पहले वे प्रात: लगभग 9:15 के आसपास जातीं। वहाँ यथानुकूलता सेवा-उपासना करतीं। माला-जाप करती और पूज्यश्री से मंगलपाठ सुनकर आ जातीं। संवत्सरी के पारणे के कुछ दिनों बाद उनके स्वास्थ्य की स्थिति कुछ कमजोर बनी। चक्‍कर ज्यादा आने लगे। चक्‍कर की स्थिति में उनका पैदल जाना उचित नहीं था। पर उनका मनोबल मजबूत था। उनका मन पैदल जाने का ही कह रहा था। पर हमने उनको व्हीलचेयर से जाने के लिए राजी कर लिया। यह क्रम चल रहा था। कार्तिक कृष्णा द्वितीया को शारीरिक अस्वस्थता के कारण वे व्हील चेयर से भी नहीं जा पा रही थी। दिन मात्र 20 मिनट रहा होगा। उन्होंने कहामुझे गुरुदेव के दर्शन करने हैं, मंगलपाठ सुनना है। हमने कहागुरुदेव को निवेदन करवा दें। उन्होंने कहानहीं। गुरुदेव तो बहुत श्रम करवाते हैं। गुरुदेव को मेहनत मत दो। मुझे ही ले चलो। हम उन्हें गुरुदेव के दर्शन कराने ले गए।
दूसरे दिन प्रात: भ्रमण के दौरान अचानक आचार्यप्रवर हमारे ठिकाणे के बाहर पधारे और फरमायाचंद्रिकाश्रीजी को अभी दर्शन दे देते हैं। चंद्रिकाश्रीजी के दवाई आदि का आवश्यक कार्य चल रहा था। आचार्यप्रवर‘जल्दबाजी मत करो। आराम से काम कर लो। हम यहीं हॉल में खड़े हैं।’
आचार्यप्रवर हमारे कक्ष में पधारे, बिराजे। साध्वीप्रमुखाश्रीजी भी पधार गए। आचार्यप्रवर ने अनुकंपा करवाते हुए फरमायाअब हम ही रोज दर्शन देने आ जाएँगे। भ्रमण के दौरान प्रथम पड़ाव यहीं का रहेगा। चंद्रिकाश्रीजी ने निवेदन कियाआपश्री ने बहुत कृपा कराई। गुरुदेव आप मेहनत नहीं करवाएँ। मेरे आने में कठिनाई नहीं है। जब कभी कठिनाई होगी तो मैं निवेदन करवा दूँगी। पर आचार्यप्रवर ने स्वयं का पधारना ही स्वीकार किया और यह क्रम प्रतिदिन बना रहा। गुरुदेव का पधारना, विराजना और उन्हें सेवा-उपासना करवाना उन पर असीम वात्सल्य का ही परिणाम था। (क्रमश:)