उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण

आचार्य देवर्द्धिगणी का नाम जैन इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उन्होंने प्रकीर्ण आगमज्ञान को स्थायित्व प्रदान करने के लिए श्रुतलेखन का महत्त्वपूर्ण कार्य मौलिक सूझ-बूझ से किया, उस कार्य को समय की घनी परतें भी ढक न सकेंगी। लोकश्रुति के आधार पर देवर्द्धिगणी सौराष्ट्र नरेश अरिमर्दन के राजसेवक कामर्द्धि क्षत्रिय के पुत्र थे। उनकी माता का नाम कलावती था। माता ने ॠद्धि संपन्‍न देव को स्वप्न में देखा था। उसी स्वप्न के आधार पर पुत्र को देवर्द्धि संज्ञा से अभिहित किया गया। आगम-कार्यदुष्काल की काली घटाएँ घिर आईं। उस समय अनेक श्रुतधर काल-कवलित हो गए एवं श्रुत की बहुत क्षति हुई। दुष्काल की समाप्ति के बाद वल्लभी में जैन संघ एकत्रित हुआ। विशिष्ट वाचनाचार्य, नानागुणालंकृत श्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण श्रमणसंघ के अध्यक्ष थे।
श्रमण सम्मेलन में समग्र आगम-पाठों का श्रमणों की स्मृति से संकल्प हुआ एवं श्रुत को स्थायित्व प्रदान करने हेतु उसे लिपिबद्ध किया गया। आगम-लेखन का कार्य आचार्य आर्यरक्षित के युग में भी अंशत: प्रारंभ हो चुका था।
आचार्य स्कंदिल और आचार्य नागार्जुन के समय में भी आगम लिपिबद्ध होने के उल्लेख मिलते हैं पर देवर्द्धिगणी के नेतृत्व में समग्र आगमों का जो व्यवस्थित संकलन एवं लिपीकरण हुआ, वह अपूर्व था, अत: परंपरा से वह श्रेय आचार्य देवर्द्धिगणी को है। वल्लभी नगरी में देवर्द्धिगणी प्रमुख श्रमण संघ ने वी0नि0 980 (वि0सं0 510) में आगमों को लिपिबद्ध किया था। आगम-वाचना के समय स्कंदिली एवं नागार्जुनीय उभय वाचनाएँ देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के सक्षम थीं। नागार्जुनीय वाचनाओं के प्रतिनिधि आचार्य कालक (चतुर्थ) थे। स्कंदिली वाचना के प्रतिनिधि देवर्द्धिगणी स्वयं थे। उभय वाचनाओं में पूर्ण समानता नहीं थी। देवर्द्धिगणी ने श्रुत संकलन कार्य में अत्यंत तटस्थ नीति से काम किया। पूर्व वाचनाकार आचार्य स्कंदिल की वाचना को प्रमुखता प्रदान कर तथा नागार्जुनीय वाचना को पाठांतर के रूप में स्वीकार कर उदारता और गंभीरता का परिचय दिया तथा जैन संघ को विभक्‍त होने से बचा लिया। देवर्द्धिगणी ने दर्शन एवं न्याय के युग को आगम युग के साथ अपनी साहित्य-धारा के माध्यम से जोड़ा। नंदीसूत्र इसी दिशा का एक प्रयत्न है। जैन शासन आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का युग-युग तक आभारी रहेगा। आगम-लेखन कार्य से उन्होंने वीतराग-वाणी को दीर्घकालता प्रदान की है एवं जैन आगम निधि को समुचित संरक्षण दिया है। उनके इस प्रयत्न के अभाव में श्रुतनिधि का जो आज रूप प्राप्त है वह नहीं होता।
देवर्द्धिगणी अंतिम पूर्वधर थे। देवर्द्धिगणी के स्वर्गस्थ होने के साथ पूर्वज्ञान-धारा का लोप हो गया। देवर्द्धिगणी वीर निर्वाण की प्रथम सहाब्दि के आगम-निधि के महान संरक्षक आचार्य थे।
गणाधिपति गुरुदेव तुलसी ने व्यवहार बोध नामक ग्रंथ में लिखा है

जिनशासन के चिर जीवन का
आगम ही मौलिक आधार।
रहा सुरक्षित उसमें गणिवर
‘देवर्धी’ का अति उपकार॥

शुभ भविष्य के प्रवर पृष्ठ पर,
अगर नहीं होता आलेख।
अतुल अनुत्तर ज्ञान-राशि वह,
बन जाती पानी की रेख॥

(व्यवहार बोध81/82)

(क्रमश:)