संबोधि

स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

बंध-मोक्षवाद
मेघ: प्राह

(1) किं बंध: किं च मोक्षस्तौं, जायेते कथमात्मनाम्।
तदहं श्रोतुमिच्छामि, सर्वदर्शिन्! तवान्तिके॥

मेघ बोलाहे सर्वदर्शिन्! बंध किसे कहते हैं? मोक्ष किसे कहते हैं? आत्मा का बंधन कैसे होता है और मुक्‍ति कैसे होती हैयह मैं आपसे सुनना चाहता हूँ।

भगवान् प्राह

(2) स्वीकरणं पुद्गलानां, बंधो जीवस्य भण्यते।
अस्वीकार: प्रक्षयो वा, तेषां मोक्षो भवेद् ध्रुवम्॥

भगवान् ने कहाआत्मा के द्वारा पुद्गलों का जो ग्रहण होता है, वह बंध कहलाता है। जिस अवस्था में पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता और गृहीत पुद्गलों का क्षय हो जाता है, उस स्थिति का नाम मोक्ष है।

(3) प्रवृत्त्या बद्ध्यते जीवो, निवृत्या च विमुच्यते।
प्रवृत्तिर्बन्धहेतु: स्यात्, निवृत्तिर्मोक्षकारणम्॥

प्रवृत्ति के द्वारा जीव कर्मों से आबद्ध होता है और निवृत्ति के द्वारा वह कर्मों से मुक्‍त होता है। प्रवृत्ति बंध का हेतु है और निवृत्ति मोक्ष का।

(4) प्रवृत्तिराव: प्रोक्‍तो, निवृत्ति: संवरस्तथा।
प्रवृत्ति: प×चधा ज्ञेया, निवृत्तिश्‍चापि प×चधा॥

प्रवृत्ति आव है और निवृत्ति संवर। प्रवृत्ति के पाँच प्रकार हैं और निवृत्ति के भी पाँच प्रकार हैं।
महावीर दु:ख और दु:ख मुक्‍ति का छोटा सा सूत्र बता रहे हैं। वे कहते हैं‘कामना दु:ख है। कामना के पार चले जाओ, दु:ख से छूट जाओगे‘कामे कमाहि, कमियं खु दुक्खं।’ प्रवृत्ति का जन्म इच्छाराग-द्वेष से होता है। यही बंधन है। जब उन पुद्गलों की अवस्थिति संपन्‍न होती है तब वे सुख-दु:ख के रूप में प्रकट होते हैं। और फिर मनुष्य तदनुरूप प्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं। इस भवचक्र का उन्मूलन होता है अप्रवृत्ति-निवृत्ति से। जिसे दु:ख-मुक्‍ति प्रिय है उसे निवृत्ति का प्रयोग भी सीखना चाहिए। प्रवृत्ति के पाँच प्रकार हैं और निवृत्ति के भी पाँच प्रकार हैं। प्रवृत्ति बाँधती है और निवृत्तिमुक्‍त करती है। प्रवृत्ति मनुष्य की चिरसंगिनी है। उससे छूटना सहज नहीं है, किंतु बिना छूटे बंधन-मुक्‍ति भी संभव नहीं है। साधना का लक्ष्य ही हैदु:ख से मुक्‍त होना, निर्वाण को प्राप्त करना। उसमें बाधक हैंये पाँच प्रवृत्तियाँ। ये पाँचों ही तपोमयी हैं। इनसे जकड़ा हुआ व्यक्‍ति सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। वह अनवरत बेहोशी का जीवन जीता है। जिसे कभी यह बोध भी नहीं होता कि मेरा जन्म क्यों है? मैं कौन हूँ? एक विचारक ने कहा है‘यदि विश्‍वविद्यालय लड़कों को मनुष्य नहीं बना सकते तो उनके अस्तित्व का कोई लाभ नहीं है। लड़के-लड़कियों को पहले यह मालूम होना चाहिए कि वे क्या है? और किस उद्देश्य के लिए उनको जीना है? प्रवृत्तियों के विश्‍लेषण में उतरने से पहले एक बात और समझ लेनी चाहिए कि प्रवृत्ति मात्र बाधक नहीं है। निवृत्ति के पथ पर व्यक्‍ति जब आरूढ़ होता है तब उससे पहले भी प्रवृत्ति चलती है, किंतु वह बाधक नहीं बनती क्योंकि उस प्रवृत्ति की दिशा भटकाव वाली नहीं है। वह निवृत्ति के अभिमुख है। उसकी अंतिम परिणति निवृत्ति है। जिस प्रवृत्ति का प्रवाह निवृत्ति के अभिमुख नहीं होता वह प्रवृत्ति मनुष्य को स्वयं से निरंतर दूर ले जाती है। स्वयं से दूर होना ही संसार है।
(क्रमश:)