आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

स्वभाव-परिवर्तन की प्रक्रिया : शरीर-प्रेक्षा

स्थूल साधना योग से, होता सूक्ष्म-प्रवेश।
प्रेक्षा सतत शरीर की, मिटे सभी संक्लेश॥
बाहर भीतर एकरस रहता है जो धीर।
उसे नहीं लगता कभी, ठंडा गरम समीर॥
बाह्यरमण से ही मनुज, बनता जो निष्णात।
तो आलोड़न के बिना, मिल जाता दधिजात॥

प्रश्‍न : ध्यान के प्रथम चरण में श्‍वास-प्रेक्षा का प्रयोग बहुत सरल और लाभदायक है। ध्यान के क्षेत्र में जिनका दीर्घकालिक अभ्यास नहीं है, उन साधकों को भी श्‍वास-प्रेक्षा करने में विशेष कठिनाई का अनुभव नहीं होता। उससे आगे की भूमिका में आलंबन क्या हो
सकता है?
उत्तर : हमारे सामने दो प्रकार के जगत हैंस्थूल-जगत और सूक्ष्म-जगत। अधिकांश व्यक्‍ति अपने जीवन का अधिक समय स्थूल-जगत में बिताते हैं। सूक्ष्म-जगत में प्रवेश करने का अवसर ही नहीं मिलता, यदि मिलता भी है तो बहुत कम। ध्यान एक प्रक्रिया है, स्थूल से सूक्ष्म प्रवेश की। स्थूल का अभ्यास करते-करते वहाँ एकाग्रता बढ़ती है और उस एकाग्रता से सूक्ष्म के द्वार का उद्घाटन होता है। शरीर-प्रेक्षा इसका एक उदाहरण है। दीर्घ-श्‍वास-प्रेक्षा के बाद शरीर प्रेक्षा का अभ्यास इस द‍ृष्टि से बहुत उपयोगी है।
शरीर-प्रेक्षा अर्थात् शरीर को देखना, बाहर से भीतर तक शरीर का दर्शन करना। जब हम शरीर को देखना शुरू करते हैं, तो पहले स्थूल बातें पकड़ में आती हैं। जैसे-जैसे शरीर-पे्रक्षा का अभ्यास बढ़ता है, सूक्ष्म बातें भी पकड़ में आने लगती हैं। हमारे शरीर में प्रकंपन होते हैं, प्राण-विद्युत होती है, जिसके द्वारा सारी प्रवृत्तियाँ संचालित होती हैं, ग्रंथि-संस्थान होता है, वे अपना काम करते हैं। ज्ञानतंतु और कर्मतंतु भी अपना काम करते हैं। शरीरगत सब धातुओं की क्रियाएँ चलती रहती हैं। इन सारी घटनाओं को शरीर-प्रेक्षा के माध्यम से जाना जा सकता है। अभ्यास की परिपक्वता में अपने प्रभा-मंडल को भी देखा जा सकता है। शरीर की सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम गतिविधियों से भी परिचित हुआ जा सकता है। यह शरीर-दर्शन का रास्ता स्थूल से सूक्ष्म तक पहुँचने का रास्ता है।
प्रश्‍न : शरीर-प्रेक्षा करने से शरीर के भीतरी रहस्यों का अवबोध होता है, शरीर की सारी गतिविधियाँ ज्ञात हो जाती हैं और अपने प्रभा-मंडल को भी जाना जा सकता है। इस संदर्भ में प्रश्‍न यह है कि इन सबको जानकर क्या करना है? जो लोग इन्हें जानते हैं, वे भी जीते हैं और जो नहीं जानते हैं, वे भी जीते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक रसेल जब किसी पंडित से बात करते तो उन्हें ऐसी प्रतीति होती कि संसार में सुखी होना असंभव है। किंतु जब वे अपने बाग के माली, भोले-भाले थामस से बात करते तो उनकी धारणा बदल जाती। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि ज्ञान का विकास अशांति का कारण है?
उत्तर : ज्ञान अशांति का कारण है, यह बात तर्कसंगत नहीं है। अधूरा ज्ञान अथवा अयथार्थ ज्ञान अशांति का कारण बन सकता है। पर इनमें दोष ज्ञान का नहीं, उसके अधूरेपन या असम्यक रूप का है। नीति का कथन
ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्य:।
अगदो यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते॥
ज्ञान मदजनित दर्प को समाप्त करने वाला है। यदि कोई ज्ञानी बनकर भी उन्मादी बन जाता है तो उसका चिकित्सक कौन हो सकता है? जिसके लिए औषधि भी जहर का काम करे, उसकी चिकित्सा कैसे की जा सकती है? मेरे अभिमत से शरीर-तंत्र की जानकारी से जागरूकता बढ़ती है। जानकारी और जागरूकता के समुचित योग से आदतों को बदला जा सकता है। हमारे मस्तिष्क में एक तत्त्व हैस्मृति-रसायन। डॉक्टरों ने उसको पकड़ा। एक व्यक्‍ति के स्मृति-रसायन को निकाल वे दूसरे के इंजेक्शन लगाने में सफल हो गए। इसका प्रयोग एक चूहे पर किया गया। उसे कई दिनों तक ऐसा प्रशिक्षण दिया गया, जो उसे अंधेरे से प्रकाश में ले जाता था। प्रशिक्षण के बाद वह चूहा अनायास ही अंधेरे को छोड़ प्रकाश में चला जाता। उसे चूहे के ‘स्मृति-रसायन’ को निकालकर दूसरे चूहे को उसका इंजेक्शन लगाया गया। वह चूहा भी पहले चूहे की भाँति अंधेरे में नहीं रहा। चूहों पर किया गया यह प्रयोग मनुष्य पर भी किया जा सकता है, पर इसका ज्ञान न हो तो प्रयोग कैसे हो? मनुष्य के मस्तिष्क में जो विचार-तरंगें, भाव-तरंगेें हैं, उनमें क्रोध और अभिमान की तरंगें भी हैं। उनको वहाँ से हटाकर अच्छे भाव संप्रेषित करने के लिए तरंगों का, प्रकंपनों का बोध आवश्यक है। यंत्रों के द्वारा यह बोध करने में कठिनाई हो सकती है, पर ध्याता के लिए कोई कठिनाई नहीं होती। ध्यान के अभ्यास से वह जान लेता है कि किस केंद्र पर ध्यान करने से क्रोध मिटता है। किस केंद्र पर ध्यान करने से अहं समाप्त होता है। और कौन-सा केंद्र उलझनें समाप्त करने वाला है। शरीर-प्रेक्षा आदत-परिवर्तन की प्रक्रिया है, जीवन परिवर्तन का विज्ञान है और संक्लेश मिटाने का मार्ग है।

(क्रमश:)