संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

क्रिया-अक्रियावाद


(5) नि:शीला: पापिकां वृत्ति,ं कल्पयन्त: प्रवंचना:।
उत्कोचना विमर्यादा, मिथ्यादंडं प्रयु×जते॥

वे शील रहित होते हैं, पापपूर्ण आजीविका करते हैं, दूसरों को ठगते हैं, रिश्‍वत लेते हैं, मर्यादा-विहीन होते हैं और मिथ्या-दंड का प्रयोग करते हैंअनावश्यक हिंसा करते हैं।

(6) क्रोधं मान×च माया×च, लोभ×च कलहं तथा।
अभ्याख्यान×च पैशुन्यं, श्रयन्ते मोहसंवृत्ता:॥

वे मोह से आच्छन्‍न होने के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान-दोषारोपण और चुगली का आश्रय लेते हैं।

(7) गर्भान्ते गर्भमायान्ति, लभन्ते जन्म जन्मन:।
मृत्यो: मृत्यु×च गच्छन्ति, दु:खाद् दु:खं व्रजन्ति च॥

वे गर्भ के बाद गर्भ, जन्म के बाद जन्म, मृत्यु के बाद मृत्यु और दु:ख के बाद दु:ख को प्राप्त होते हैं।
समस्त मानव जगत् को तीन भागों में विभक्‍त किया जा सकता है(1) आत्मवादी (आस्तिक), (2) अनात्मवादी (नास्तिक), (3) आत्मगवैषी या आत्मोपलब्ध। आत्मोपलब्ध व्यक्‍ति के लिए ‘आत्मा है’ यह मान्यता का विषय नहीं रहता। उसके लिए आत्मानुभव अन्य पदार्थों की भाँति प्रत्यक्ष है। जो आत्म-खोजी हैं वे भी मानकर संतुष्ट नहीं होते। वे उसकी प्राप्ति के लिए कटिबद्ध होते हैं। आत्मा उनके लिए छुई-मुई की तरह कभी प्रत्यक्ष होती है और कभी अप्रत्यक्ष। जलराशि पर पड़ी सेवाल को हटाने पर आकाश की नीलिमा अप्रत्यक्ष नहीं रहती, लेकिन पुन: सेवाल के फैल जाने पर वह गायब हो जाती है। ठीक साधनाशील व्यक्‍ति के जीवन में यही क्रम चलता है, जब तक सर्वथा विजातीय अणुओं का निर्मूलन नहीं होता। जैसे ही वे हटते हैं, आत्मा का सूर्य अपनी प्रकाश-गोद में उसे आवेष्टित कर लेता है।