समर्पण के सुमेरु गुरु-भक्‍त का नाम है - आचार्य भारीमालजी

समर्पण के सुमेरु गुरु-भक्‍त का नाम है - आचार्य भारीमालजी

 साध्वी अणिमाश्री

अपने जीवन के प्रत्येक व्यवहार से विनम्रता व समर्पण का पाठ पढ़ाने वाले कुशल अनुशास्ता का नाम हैआचार्य भारीमालजी। आगम-ज्ञान, न्याय-द‍ृष्टि तथा तटस्थ वृत्ति की त्रिवेणी में अभिस्नात निर्मल चेतना का नाम हैआचार्य भारमालजी। श्रुतसागर में निरंतर अवगाहन कर मणि-मुक्‍ताओं को बटोरने वाले आगम-मनीषी का नाम हैआचार्य भारमलजी। गुरु की सीख को सर्वात्मना स्वीकार करने वाले समर्पण के सुमेरु गुरु-भक्‍त का नाम हैआचार्य भारमालजी। पाँच लाख पद्यों का लेखन कर संघ के भंडार को समृद्ध करने वाली विलक्षण प्रतिभा का नाम हैआचार्य भारमालजी। प्रणम्य है उनकी एकाग्रता, अनुमोदनीय है उनकी कर्मठता, अनुकरणीय है उनकी सहजता, सरलता व पापभीरुता। समभाव के उत्तुंग शिखर पर आसीन आचार्य भारीमाल जी ने जीवन के हर उतार-चढ़ाव में जो संतुलन रखा, वह धर्मसंघ की अनमोल धरोहर है। उदयपुर के महाराणा द्वारा आचार्य भारीमालजी को उदयपुर से निष्कासन का आदेश प्राप्त हुआ। आचार्य भारीमालजी ने बिना किसी प्रतिक्रिया के सहज भाव से वहाँ से विहार कर दिया, समता भाव में प्रतिष्ठित रहे। पुन: वहाँ के महाराणा ने अपनी भूल का अहसास करते हुए उदयपुर पधारने का निवेदन करवाया, किंतु आचार्य भारीमलाजी ने तुरंत आने से इनकार कर दिया। हर परिस्थिति में उनका साम्ययोग अप्रकंप बना रहा। आचार्य भिक्षु द्वारा निर्मित मर्यादा की प्रयोगशाला के स्वनामधन्य आचार्य भारीमालजी प्रथम पुरुष रहे हैं। आचार्य भारीमालजी अनुशासनप्रिय आचार्य थे। वे आचार्य भिक्षु के अनुशासन में निखरकर संघ के भव्य-भाल पर किरीट बन सुशोभित हुए। समर्पण की आँच में तपकर कुंदन बनने वाले आचार्य भारीमालजी ने धर्मसंघ की आने वाली हजारों-हजार पीढ़ियों को विनय, समर्पण का जीवंत संदेश दिया है। वे घंटों-घंटों खड़े-खड़े, स्वाध्याय करते। उनकी एकाग्रता, स्थिरता, तल्लीनता आज भी धर्मसंघ के अणु-अणु में प्रबल प्रेरणा का संचार कर रही है। विनय, समर्पण की स्याही से लिखा हुआ उनकी जीवन-पोथी का हर पन्‍ना नगीने की तरह चमकता हुआ वर्तमान पीढ़ी को दिशा-बोध प्रदान कर रहा है। आचार्य भिक्षु के परम भक्‍त, परम विनीत और प्रमुख शिष्य आचार्य भारीमालजी प्रज्ञावान, श्रमशील होने के साथ-साथ गुरुआज्ञा पर प्राणों का अर्घ्य चढ़ाने वाले थे। गुरु-भक्‍ति का उत्कृष्ट रूप उस वक्‍त निखरकर सामने आया, जब उन्होंने अपने संसारपक्षीय पिता मुनि किशनोजी के असीम वात्सल्य को अमान्य कर दिया। अपने पिता मुनि किशनोजी से कहा
बोलै भारीमाल अजी मोटा पुरुषा मनै समझावो।
छोड़ दियो संसार बाप-बेटै रो अबै किसो दावो।
थांरै हाथ रो अन्‍नजल ल्यूं तो त्याग मनै मत समझावो,
सुणतां उठ्यो उबाल, भीम भूचाल
भीखणजी थांरै कांई लागै॥
वज्रसंकल्पी भारीमालजी ने मुनि किशनोजी द्वारा लाए गए आहार-पानी का भावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान कर दिया। अपने वज्रसंकल्प पर अडिग रहे। इस भीष्म-प्रतिज्ञा को स्वीकार करने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई। धन्य है ऐसी महान विभूति के अदम्य संकल्प को। भगवान महावीर ने कहा है‘सोहीज्जुयभूयस्स’ शुद्धि उसी की होती है, जो सरल है। आचार्य भारीमालजी के जीवन में भगवान महावीर की वाणी का स्पष्ट निदर्शन मिलता है। ॠजुता के रंग में रंगी उनकी संयम-निष्ठा धर्मसंघ में आज भी नया रंग बिखेर रही है। उनके जीवन में बालक जैसी सरलता थी। वो बिना किसी लाग-लपेट के अपनी जीवन-पोथी के हर पन्‍ने को सबके सामने सरलता से प्रकट कर देते थे। उनके जीवन का यह घटना-प्रसंग उनकी सरलता का स्वयंभू साक्षी है। आचार्य बनने के बाद एक परंपरापोषी भाई ने आचार्य भारीमलजी से पूछाखम्मा अन्‍नदाता! बचपन में आपके कान क्यों नहीं बींधे? आचार्य भारीमालजी ने सरलता के साथ उस भाई से कहाश्रावकजी! हमारे उधर मेवाड़ में बच्चे की कान-बिंधाई पर पारिवारिक लोगों को भोज दिया जाता है। गीत गाने वाली महिलाओं को गुड़ बाँटा जाता है। मेरे संसारपक्षीय परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। गुड़ बाँटने और सबको भोजन करा सके, उतने पैसे की व्यवस्था मेरे पिताजी के पास कहाँ थी, जो मेरी कान-बिंधाई की रस्म को पूरा कर सके। यह थी उनकी ॠजुता, सरलता, सहजता जो आज भी हमें सरल व सहज जीवन जीने की प्रेरणा दे रही है। निर्भयता, नि:संगता, स्थितप्रज्ञता, स्थिरयोग समता, स्वाध्याय, रुचि इन जीवन-सूत्रों ने उनकी साधना को शुक्लता प्रदान की। इन्हीं विरल-गुणों के कारण आचार्य भारीमलजी की जीवन-चर्या, दिनचर्या, समयचर्या व ॠतुचर्या से अत्यंत प्रभावित संत मुनि हेमराजजी ने उन्हें एकाभवतारी कहकर नमन किया है। उनके निर्मल चारित्र का यज्ञ आज भी दिग-दिगंत में व्याप्त होकर अणु-अणु में प्राणवत्ता का संचार कर रहा है। आचार्य भिक्षु की धरोहर संभालने वाले प्रथम व्यक्‍तित्व आचार्य भारीमलजी का जीवन-वृत्त पुरुषार्थ की स्याही से लिखा हुआ एक दुर्लभ ग्रंथ है। जिनके प्रत्येक पन्‍ने ही हर पंक्‍ति वर्तमान पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रही है। अप्रमत्तता, नियमितता, निरंतरता के रस से धुली सरस जीवन-गाथा आज भी हम सबको सरसब्जता प्रदान कर रही है। परमपूज्य महातपस्वी आचार्य महाश्रमणजी के निर्देशन में धर्मसंघ आचार्य भारीमाल जी स्वामी के महाप्रयाण का द्विशताब्दी समारोह मना रहा है। मंगलमूर्ति आचार्य भारीमलजी को इस मंगल अवसर पर श्रद्धा का अर्घ्य समर्पित कर रहे हैं। आचार्य भारीमालजी का प्रत्येक गुण हमारे भीतर संक्रांत हो। इन्हीं मंगलभावों के साथ श्रद्धासिक्‍त अंतहीन प्रणाम! प्रणाम!! प्रणाम!!!