साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(48)

सत्य को साकार करना जानते हो
बनाना उसको कहो फिर श्रव्य कैसा?

नहीं सदियों तक पहुँच होगी मनुज की
कर परिश्रम तुम पहुँच पाए जहाँ पर
तरणि की उजली किरण हो सामने जब
तिमिर का साम्राज्य टिकता है कहाँ पर
ज्योति बनकर तुम स्वयं उतरे धरा पर
अब तमस के हरण का मंतव्य कैसा?

अचिंतन से विशद चिंतन दे रहे तुम
इसलिए एकांत में परितोष पाते
साधता सान्‍निध्य यदि कोई तुम्हारा
गहन दर्शन की उसे बातें सुनाते
मूकता प्रेरक रही उपदेश से बढ़
फिर बताओ सत्य का वक्‍तव्य कैसा?

चरण ये गतिशील रहते हैं तुम्हारे
ठहरना अभिशाप ऐसा मानते हो।
रूढ़ता को मोड़ देने क्रांति करते
कला जीने की सिखाना जानते हो।
जलधि की हर लहर से गतिमान हो जब
आत्मकेंद्रित साधना गंतव्य कैसा?

विश्‍व मानव को सदा सद्बोध देने
चीर बाधाएँ स्वयं चलते रहे हो।
तिमिर हरने का सफल सपना बनाने
दीप बनकर रात-दिन जलते रहे हो।
जब स्वयं पौरुष तुम्हारा निखरता है
फिर बताओ नियति या भवितव्य कैसा?

(49)

सज रहे हैं आज घर-घर नए वंदनवार।
पुलक भरता ही रहे हर वर्ष यह त्योहार॥

फूल बनकर खिल रहे तुम बाँटते मुस्कान
दीप बनकर जल उठे तो तिमिर अंतर्धान
कल्पना की मधुरिमा तुम गीत की झंकार॥

जन्म का उत्सव मनाएँ पा नई पहचान
पौध सपनों की फली है मुखर मंगल गान
एक सुधि अनजान सपनों में जगी सुकुमार॥

खोलकर अभिनव क्षितिज तुम दो नया आयाम
विश्‍व मानव की बने ज्यों जिंदगी अभिराम
छा गया उल्लास सबमें पा तुम्हें साकार॥

अभय का वरदान दे दो भीति को कर दूर
स्वप्न को सच में बदलने शक्‍ति दो भरपूर
पर्व हो आराधना के सिद्धि के तुम द्वार॥

(क्रमश:)