राग-द्वेष से बचने का प्रयास करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

राग-द्वेष से बचने का प्रयास करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

फतेहगढ़, 30 जून, 2021
नैतिकता, नशामुक्‍ति एवं सद्भावना के प्रबल प्रेरणा प्रदायक आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: 11 किमी का विहार कर फतेहगढ़ पधारे। मंगल देशना देते हुए परम पावन ने फरमाया कि संवाद-संवाद में कई अच्छी ज्ञान की बातें भी प्राप्त हो जाती हैं।
शास्त्र में संवाद के दौरान बताया गया कि प्रगाढ़ राग-द्वेष और स्नेह ये भयंकर पाश होते हैं। आदमी को पाश में फँसने से बचने का प्रयास करना चाहिए। राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। जितना भी पाप-कर्म लगता है, उसका जिम्मेवार मोह कर्म होता है। राग-द्वेष मोह के ही दो विभाग हो जाते हैं।
जिस आत्मा में राग-द्वेष नहीं, उसके पाप-कर्म का बंध हो ही नहीं सकता। अवीतराग प्राणी है, उसके भीतर यह राग-द्वेष की अग्नि प्रज्ज्वलित रहती हैं आदमी के शांत अवस्था में भी भीतर गुस्सा तो है, कोई गालियाँ देने लगा तो वह गुस्सा प्रकट हो गया।
एक अंश में ग्यारहवें गुणस्थान की भी यही दशा है। उपशांत मोह युगस्थान। वहाँ पर आदमी की स्थिति वीतराग की है, पर वहाँ भी भीतर में कषायाग्नि, मोहाग्नि है। अंगार के ऊपर सघन राख है। ऊपर आग नहीं है, पर राख हठाते ही आग से हाथ जल सकता है। यह उपशम भाव एक प्रकार से राख के समान है।
भीतर में अप्रगट रूप में कषाय है। निमित्त साधन मिलते ही प्रगट हो जाता है। आग को चलित किया जाए तो वह प्रगट हो जाती है। सर्प बैठा है, छेड़ो तो फण उठा सकता है। बालक में तेजस्विता है, उन्हें कोई निमित्त मिल जाए तो तेजस्विता प्रगट हो सकती है। जीत मुनि में क्षमता थी, मुनि हेमराज जी का योग मिला, कितना ज्ञान विकसित हो गया। बिंदु से सिंधु जैसा मुनि हेमराज जी ने बना दिया।
निमित्त भी आदमी के विकास में सहयोगी बन जाता है। अच्छे लोगों का संपर्क मिलता है तो भीतर में जो उपादान है, उसको पे्ररणा मिल जाती है और वह प्रगट हो जाता है। इसी प्रकार हमारे कषाय हैं। वे निमित्त मिलने से उभार को प्राप्त हो जाते हैं। हमारी साधना ये होनी चाहिए कि निमित्त आने पर भी हमारे कषाय प्रज्ज्वलित न हों।
विकार का निमित्त मिलने पर भी जिनके चित्त विकसित नहीं होते हैं, वे धीर-पुरुष हो जाते हैं। तीन शब्द हैंअशक्‍ति, शक्‍ति और महाशक्‍ति। एक आदमी के मन में गुस्सा है, पर मन में कमजोरी है, वह बोल नहीं पाता है, वह उस आदमी की अशक्‍ति है। उसमें बोलने की क्षमता नहीं है।
एक आदमी है, किसी ने अपमान किया, बोलने की हिम्मत भी है, वो दो की चार सुना देता है, यह उसमें शक्‍ति है। महाशक्‍तिमान वह है, जिसमें क्षमता है, दो की चार सुना सकता है, तो भी शांत है, कुछ नहीं बोलता है। आदमी को अशक्‍तिमान तो नहीं होना चाहिए। आदर्श की द‍ृष्टि से शक्‍ति होने पर भी हिंसा में नहीं जाता वो फिर महाशक्‍तिवाला व्यक्‍ति हो जाता है। साधु का सहन करना धर्म है।
शक्‍ति का विकसित होना अच्छा है, पर उसका दुरुपयोग न हो। असहिष्णुता है, तब गुस्सा आ रहा है। अशक्‍ति भी न हो और महाश्िाक्‍त बनने की भावना रखनी चाहिए।
चंडकौशिक सर्प था वो चंड से अचंड हो गया। साधना की द‍ृष्टि से प्रचंड हो गया। शक्‍ति तो होनी चाहिए, पर उसका उपयोग अच्छा हो। गुस्सा द्वेष का अंग है। अहंकार भी द्वेष है। माया और लोभ राग के अंग हैं। साधना हमारी ऐसी हो कि अनुकूलता में राग में नहीं जाना, प्रतिकूलता में द्वेष में नहीं जाना, मध्यस्थ रहना।
परमपूज्य आचार्यश्री तुलसी के जीवन को देखें। अनुकूलताएँ-प्रतिकूलताएँ दोनों ही उनके जीवन में आईं। सम्मान भी मिले और विरोध भी हुआ। मानसिक संतुलन में रहे। जन्म तो बच्चे ही लेते हैं, पर बच्चे बहुत अच्छे बन सकते हैं। बड़े आदमी कहलाने के योग्य बन सकते हैं। जीवन में गुणों का विकास हो।
तीव्र राग-द्वेष और स्नेह को पाश कहा गया है। हम पाशों से बचने की सावधानी रखें और विकास में संलग्न रहने का प्रयास करें, यह काम्य है।