आत्मा के कल्याण के लिए त्याग और संयम रखना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा के कल्याण के लिए त्याग और संयम रखना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

मंदसौर, 1 जुलाई, 2021
अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी अपनी धवल सेना के साथ राजस्थान की ओर अग्रसर है। वर्तमान में मंदसौर जिले में यात्रा चल रही है। परम पावन आज प्रात: मंदसौर हैड क्वार्टर पधारे। प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि आत्मवाद, कर्मवाद, लोकवाद, क्रियावाद ये दर्शन के प्रमुख सिद्धांत हैं। आत्मा का अस्तित्व त्रेकालिक भी होता है और शाश्‍वत
होता है।
त्रेकालिक तो अशाश्‍वत किसी अपेक्षा से हो जाए। आदमी का शरीर त्रेकालिक तो है पर अशाश्‍वत है, विनाशधर्मा है। आत्मा शाश्‍वत रहती है। हमेशा थी, है और हमेशा रहेगी। कभी उसका नाश नहीं हो सकता। एक आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। प्रत्येक आत्मा असंख्य प्रदेशों का पिंड होती है। ये प्रदेश इतने हैं कि आत्मा फैलाव करे तो इस पूरे लोक के 1-1 प्रदेश पर आत्मा का 1-1 प्रदेश स्थित हो जाए।
जैन तत्त्व विद्या में जो केवली समूद्घात की बात आती है। यह आठ समय कालों की एक प्रक्रिया है। उसमें ऐसा समय भी आता है, जब आत्मा पूरे लोक में फैल जाती है। पूरे लोक में फैलने वाली आत्मा छोटे से शरीर में कैसे समा जाती है। हाथी में जो आत्मा है, कुंथु में भी वो ही आत्मा है। जितना अवकाश मिलता है, उसके हिसाब से आत्मा अपने अपको एडजेस्ट कर लेती है।
एडजेस्टमेंट की प्रेरणा आत्मा से ली जा सकती है। पारिवारिक जीवन में औचित्य के अनुसार तालमेल करके रहें। जैसी स्थिति-परिस्थिति है, उस अनुसार अपने आपको सामंजस्य कर लें। मन को संतुष्ट रखें। साधु भी सामंजस्य करते ही हैं। सामंजस्य एक-दूसरे के साथ बिठाना भी एक जीवन जीने की कला है। दूसरों के साथ किस तरह सामंजस्य बिठाया जाए। समझदारी हो, सहिष्णुता हो।
जैसे दीपक जल रहा है, उस पर टोपसी लगा दी तो उसका प्रकाश टोपसी में ही सीमित हो जाएगा। टोपसी हटाकर बड़ा टब लगा दिया तो वो प्रकाश पूरे टब में सीमित हो जाएगा। टब को हटाकर कमरे को बंद कर दिया तो प्रकाश पूरे कमरे में फैल जाएगा। उसी स्थिति अनुसार आत्मा को जैसा शरीर मिलता है, आत्मा प्रसरित हो जाती है, फैल जाती है। पूरे लोक में फैलना है, तो पूरे लोक में फैल जाती है। अलोक में नहीं जा सकती।
आत्मा के जो असंख्य प्रदेश हैं, वो अविनाशी है। शरीर का अंग कोई भले कट जाए पर आत्मा के प्रदेश टूटते नहीं हैं। आत्मा अछेद‍्य है। आत्मा अदाह्य है। आत्मा अक्लेष्य है, आत्मा असोस्य है। ये आत्मा के स्वरूप हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, एक पूरा लोकाकाश और एक जीव इन चारों के प्रदेश संख्या में असंख्य हैं, समान है। एक भी प्रदेश कम-ज्यादा नहीं होता है। चारों तुल्य है, समान है। आत्मा मोक्ष में है या संसार में हो, उसके असंख्य प्रदेश हैं।
आत्मा के असंख्य प्रदेशों में से एक भी प्रदेश कम नहीं होता। अनंतकाल बाद भी एक प्रदेश ज्यादा नहीं होता। उतने के उतने रहते हैं। यह आत्मा की यथावत्तता है, शाश्‍वत्तता है। जैन दर्शन में यह आत्मवाद का सिद्धांत है।
आत्मा आठ बताई गई हैं, पर आत्मा अलग-अलग नहीं है, द्रव्य आत्मा तो एक ही है, सात भाव आत्माएँ हैं। वे द्रव्य आत्मा की अवस्थाएँ हैं। जैन दर्शन का यह सिद्धांत भी है कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है। मैं कौन हूँ? मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ। आत्मा स्थायी है, ये स्थूल शरीर अस्थायी है।
प्रश्‍न है, स्थायी के लिए हम क्या करें? अस्थायी तो कभी नष्ट होने वाला है। पर उसका भी ध्यान देना होता है। परंतु जो स्थायी है, आगे जाने वाली है, उस पर भी तो ध्यान दें। आत्मा के साथ क्या जाएगा। न गृहस्थों के साथ धन जाएगा, न साधु के साथ चारित्र जाएगा। एक द‍ृष्टांत से समझाया कि भले साधु के चारित्र साथ में न जाएँ पर चारित्र की साधना से जो उज्ज्वलता-निर्जरा की कमाई होगी वो साथ जाने वाली है। निर्जरा-निर्मलता के लिए साधुपन पालते हैं। तपस्या-साधना करते हैं।
तपोगुण प्रधान है, ॠजुमती है, शांति और संयम में रत है, परिषहों को जीतने वाला है, उसको सुगति सुलभ है। स्वर्ग मिलना छोटी बात है। आत्मा की निर्मलता होना बड़ी बात है। साधुपन एक दुकान है, इससे हम कमाई करते हैं। आत्मा और शरीर में भिन्‍नता है, यह भेद-विज्ञान है।
गृहस्थों के लिए चिन्त्य है, विचारणीय है कि शरीर के लिए कितना क्या करते हैं और आत्मा के लिए कितना-क्या करते हैं? आत्मा आगे जाने वाली है, उसके लिए क्या किया जा रहा है। आगे का टिफिन तैयार हो रहा है या नहीं। धर्म और संयम-तप का टिफिन हो। त्याग धर्म का टिफिन तैयार है, तो फिर मृत्यु कभी भी आ जाए, वह साथ जाने वाला है।
जो पाप ज्यादा करता है, उसको पश्‍चात्ताप हो सकता है। मौत सामने है, अब मेरा क्या होगा। इस भौतिक जगत में छोटी उम्र में घर-परिवार त्यागकर धर्मसंघ में आ जाना कितनी बड़ी बात है। आत्मा को शाश्‍वत बताया गया है, हम उसके हित का विशेष ध्यान रखें। शरीर अशाश्‍वत है, पर ध्यान रखना अपेक्षित है, पर आत्मा को उपेक्षित न कर दें, यह जागरूकता रखनी वांछनीय है।
आज मंदसौर आए हैं। अच्छा कस्बा है। जैन समाज भी बहुत है। मंदसौर यानी हिंसारूपी सौर मंद रहे। खूब अहिंसा, सद्भावना, नैतिकता की भावना रहे। मंगलकामना।
पूज्यप्रवर के स्वागत-अभिवंदना में आयुषी मास, अर्हम गु्रप, शैलेंद्र भंडारी, खुशबू पामेचा, सुहानी मेहता, कन्या मंडल, ध्रुव जैन, स्थानीय महिला मंडल, विनोद मेहता, सर्व जैन समाज प्रतिनिधि ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।