आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान से अहं-चेतना टूटती है या पुष्ट होती है?

प्रश्‍न : श्‍वास-प्रेक्षा से मानसिक एकाग्रता की बात तो समझ में आती है, पर उससे व्यक्‍ति की अहं-चेतना, क्रोध, लोभ आदि भी क्षीण होते हैं, यह बात समझ में कम आती है। क्या आप इस संदर्भ में विस्तार से बताने की कृपा करेंगे?
उत्तर : श्‍वास के साथ हमारे अंतर्भावों का गहरा संबंध है। श्‍वास उनका मानदंड बनता है। श्‍वास जितना गहरा होता है, अहंकार, क्रोध और लोभ स्वयं शांत हो जाते हैं। जिस व्यक्‍ति में अहंकार, क्रोध और लोभ की चेतना प्रबल होती है, उनका श्‍वास मंद या गहरा नहीं हो सकता। श्‍वास छोटा आता है, उसके आधार पर यह जाना जा सकता है कि अहं, क्रोध आदि वृत्तियाँ सक्रिय हैं। श्‍वास हमारे पूरे आंतरिक व्यक्‍तित्व का प्रतिनिधित्व करने वाला तत्त्व है। यह केवल प्राणवायु को भीतर ले जाने और कार्बनडायाक्साइड को बाहर निकालने का ही माध्यम नहीं है, हमारी बहुत सारी शक्‍तियों को सुलाने और जगाने का भी माध्यम हैं इसका सही उपयोग हो सके तो ध्यान-संबंधी समस्याएँ सुलझ सकती हैं।
प्रश्‍न : अभी आपने बताया कि श्‍वास-प्रेक्षा (ध्यान) करने से अहं, क्रोध आदि वृत्तियों का रूपांतरण हो जाता है या वे समाप्त हो जाती हैं। पर अनुभव यह होता है कि ध्यान और उत्तेजना साथ-साथ चलते हैं। कभी ध्यान न करने वाला व्यक्‍ति प्रतिकूल परिस्थिति में शांत रह जाता है और वर्षों से ध्यान-साधना करने वाला वहाँ अपना आपा खो देता है। ऐसा क्यों होता है?
उत्तर : यह तो स्वाभाविक है। ध्यान करने में प्राण-ऊर्जा बढ़ती है तो क्रोध भी बढ़ सकता है। शरीर में जितनी गर्मी होगी, उतना ताप होगा। जितना ताप होगा, उतना क्रोध बढ़ेगा। जितना क्रोध बढ़ेगा, उतनी मात्रा में अन्य वृत्तियाँ भी दूषित होंगी। ध्यान और तपस्या से क्रोध बढ़ सकता है, यदि उनसे प्राप्त ऊर्जा सही दिशा में प्रवाहित न हो।
प्रश्‍न : ऐसी स्थिति में साधक को क्या करना चाहिए?
उत्तर : उसे स्वाध्याय, सेवा आदि प्रवृत्तियों में अपनी ऊर्जा को खपा देना चाहिए। आहार से ऊर्जा बढ़ती है, आसन करने से वह संतुलित हो जाती है। साधक यदि अपनी ऊर्जा को खपाना नहीं जानता है, उसका सम्यक् उपयोग करना नहीं जानता है तो क्रोध, वासना आदि का आक्रमण उसे झेलना ही पड़ेगा। इसलिए ध्यान करने वाले के लिए श्रम करना जरूरी है। उससे अतिरिक्‍त ऊर्जा समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्‍ति नियमित रूप से काम में व्यस्त रहता है, उसकी ऊर्जा का प्रवाह कभी गलत रास्ते मेें नहीं जाता। आरामतलब और आलसी व्यक्‍ति ही इस समस्या से आक्रांत होते हैं। ध्यान के बाद अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय आदि ऐसे माध्यम हैं, जो ऊर्जा को खपा सकते हैं। इसलिए पे्रक्षाध्यान का अभ्यासार्थी ध्यान के साथ-साथ अनुप्रेक्षा भी करता है।
भगवान महावीर विशिष्ट ध्यानी थे, विशिष्ट तपस्वी थे। यात्रा उनकी ध्यान-साधना में बाधा थी, फिर भी वे विहार करते थे। क्यों? वे जानते थे कि ध्यान और तपस्या से उनकी ऊर्जा बहुत बढ़ती थी। उसको खपाने के लिए, सही दिशा में नियोजित करने के लिए उन्होंने विहार का रास्ता चुना। मूलत: वे अपनी ऊर्जा को अतींद्रिय चेतना के जागरण में लगाते, प्रिय-अप्रिय भावों से ऊपर उठकर आत्मस्थ बनने में लगाते। इसके बाद भी जो ऊर्जा बची रहती, उसका उपयोग विहार-चर्या में होता।
प्रश्‍न : ध्यान करने से वृत्तियों में उभार आता है तो फिर ध्यान किया ही क्यों जाए?
उत्तर : वृत्तियों की सफाई के लिए ध्यान करना बहुत जरूरी है। दमित वृत्तियाँ व्यक्‍ति को किसी भी क्षण उत्पथ में ले जा सकती हैं। इसलिए उन्हें उभारना भी जरूरी है, पर उभारने के साथ संभालने की कला आनी चाहिए। शक्‍ति का जागरण और उसका सही दिशा में उपयोग संयम को पुष्टि देने वाले हैं। दुर्बल संयम संतुलन नहीं बना सकता। इस द‍ृष्टि से सामने जो खतरा है, उसे देखते हुए ध्यान का प्रयोग किया जाता है और जागरूक साधक उस खतरे को टालकर आगे बढ़ने में सफल हो जाता है।
दीर्घश्‍वास-प्रेक्षा से शरीर को विश्राम भी मिलता है। दिन-भर का थका हुआ व्यक्‍ति दस-पंद्रह मिनट ध्यान का प्रयोग कर ताजगी का अनुभव कर लेता है। उसका शरीर और मन दोनों हलके और स्वस्थ हो जाते हैं। इस शारीरिक और मानसिक लाभ के साथ दीर्घश्‍वास-प्रेक्षा का आध्यात्मिक मूल्य भी बहुत है। आध्यात्मिक आरोहण के लिए वह एक उपयोगी सोपान है। इस पर कदम रखने के बाद चेतना के नए-नए आयामों का उद्घाटन अपने आप होने लगता है। साधक की समूची दौड़-धूप इसीलिए तो है कि उसकी चेतना के आवृत्त रहस्यों का बोध हो। प्रेक्षाध्यान के प्रथम चरण में ही उसका प्रारंभ हो सकता है बशर्ते कि साधक गहरी निष्ठा और द‍ृढ़-संकल्प के साथ प्रयोग करें।

दीर्घश्‍वास की साधना

एक मिनट में सहज है, सोलह सतरह श्‍वास।
प्रेक्षा से गति-मंदता, बिना किए अभ्यास॥
प्रारंभिक अभ्यास में, पाँच-सात उच्छ्वास।
दीर्घ-साधना में स्वयं संभव सतत विकास॥
एक मिनट में एक ही, जिस क्षण आए श्‍वास।
मनस्तोष मिलता प्रचुर, जग जाता विश्‍वास॥
पूरक-रेचक-प्रक्रिया, कुंभक प्राणायाम।
श्‍वास-संयमन का नियम, निर्विवाद अभिराम॥
कैसे कर सकते कहो, वे नर प्रेक्षाध्यान?
श्‍वास-क्रिया अनभिज्ञ जो, होकर भी मतिमान॥
संगीतात्मक श्‍वास हो, जब गहरा लयबद्ध।
विकसित अंतश्‍चेतना, स्वयं-स्वयं से बद्ध॥
प्रश्‍न : श्‍वास प्राणी की सहज क्रिया है। हर प्राणी अपनी-अपनी विधि से श्‍वास लेता है। आते-जाते श्‍वास को देखना ही अगर ध्यान है, तब तो कोई भी व्यक्‍ति ध्याता बन सकता है। दूसरी ओर ध्यान की प्रक्रिया को काफी जटिल बताया गया है। क्या यह विसंगति नहीं है?
उत्तर : ध्यान की अनेक भूमिकाएँ हैं। कुछ भूमिकाएँ सहज हैं और कुछ जटिल। दीर्घश्‍वास की प्रक्रिया बहुत सरल हैं। फिर भी अनेक व्यक्‍ति साधना के प्रारंभिक अभ्यास-काल में सफल नहीं होते। क्योंकि वे श्‍वास बहुत छोटा लेते हैं। दीर्घश्‍वास का उन्हें अभ्यास नहीं होता। उन्हें दीर्घश्‍वास का सुझाव दिया जाए तो भी क्रम व्यवस्थित नहीं होता। कारण उनके श्‍वास लेने की गति ही उलटी होती है। सामान्यत: कोई भी व्यक्‍ति श्‍वास लेता है तब पेट फूलता है और श्‍वास छोड़ता है तब पेट खाली होता है। किंतु जिन लोगों को श्‍वास लेते समय पेट के खालीपन का आभास होता है, उन्हें प्रयत्नपूर्वक क्रम बदलना चाहिए। जिन साधकों के श्‍वास की गति ठीक होती है, वे सरलता से आगे बढ़ जाते हैं। ध्यान की अग्रिम भूमिकाओं में उपस्थित जटिलता के आधार पर ध्यान को जटिल भी माना जा सकता है। यह सापेक्ष वचन है, इसलिए इसमें विसंगति जैसी कोई बात नहीं है। (क्रमश:)