उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य आर्यरक्षित

(क्रमश:) एक बार मुनि सोमदेव श्रमणों के साथ चल रहे थे। आर्यरक्षित के संकेतानुसार मार्गवर्ती बालकों ने कहा‘छत्रधारी के अतिरिक्‍त सब मुनियों को हम वंदन करते हैं।’ सोमदेव मुनि ने इसे अपना अपमान समझा और छत्र धारण करना छोड़ दिया। इसी तरह कौपीन के अतिरिक्‍त अन्य उपकरण भी छोड़ दिए थे। कौपीन त्याग की चर्चा के प्रसंग पर सोमदेव मुनि ने कहा
‘मुझे तुम वंदन भले न करो और तुम्हारी अर्चा से प्रापणीय स्वर्ग की उपलब्धि भी भले न हो, मैं नग्नतत्त्व को स्वीकार नहीं करूँगा।’ पूर्वधर आर्यरक्षित के सामने पिता सोमदेव मुनि के ये शब्द प्राचीन नग्नत्त्व परंपरा के प्रति स्पष्ट विद्रोह का संकेत था।
इस प्रसंग से ज्ञात होता है सोमदेव मुनि ने कौपीन का परित्याग लंबे समय के बाद किया था। सोमदेव मुनि भिक्षा लेने भी नहीं जाते थे। आर्यरक्षित के निर्देशानुसार एक दिन मुनियों ने उन्हें भोजन के लिए निमंत्रण नहीं दिया। सोमदेव मुनि कुपित हुए। पिता की परिचर्या के लिए आर्यरक्षित स्वयं भिक्षाचरी के लिए उठे। सोमदेव मुनि ने आर्यरक्षित से निवेदन कियाआप आचार्य हैं। धर्मसंघ की धुरा के संवाहक हैं। आचार्य गोचरी करें और मैं न करूँ, यह लोक-व्यवहार में उचित नहीं है, अत: आप मुझे आज्ञा प्रदान करें। मैं स्वयं ही गोचरी के लिए जाऊँगा।’
आर्यरक्षित ऐसा ही चाहते थे। वे मौन हो गए। सोमदेव मुनि आर्यरक्षित से आज्ञा प्राप्त कर भिक्षाचरी के लिए चले। एक संपन्‍न श्रेष्ठी के द्वार पर पहुँचे। घर में पीछे के द्वार से घुसे। सोमदेव मुनि को चोर-पथ से आते देख श्रेष्ठी कुपित हुआ। सोमदेव मुनि बुद्धि के धनी थे, वाक्पटु थे। उन्होंने तत्काल कहाश्रेष्ठी! लक्ष्मी का आगमन पीछे के द्वार से ही होता है। मधुरवाणी में वातावरण को बदल देने की क्षमता होती है। विवेकपूर्वक बोला गया एक वाक्य भी विष को अमृतमय बना देता है। सोमदेव मुनि के सुमधुर शब्द के प्रयोग से श्रेष्ठी के क्रोध का पारा उतर गया। वह मुनि पर प्रसन्‍न हुआ। श्रेष्ठी मुनि को भक्‍ति-भावपूर्वक अपने घर में ले गया और बत्तीस मोदकों का दान दिया। सोमदेव मुनि धर्मस्थान पर आए। मोदकों से भरा पात्र आर्यरक्षित के सामने रख दिया। सोमदेव मुनि का मन अत्यंत प्रसन्‍न था।
आगम विहित संयम-विधि में सोमदेव मुनि को स्थिर देखकर आर्यरक्षित का मन भी प्रसन्‍न था। प्रसन्‍नता के इन क्षणों में आर्यरक्षित से मार्गदर्शन प्राप्त कर सोमदेव मुनि ने अपने हाथ से तत्रस्थ सब मुनियों को मोदक का दान दिया और दान धर्म का महान् लाभ प्राप्त किया।
आचार्य आर्यरक्षित का युगप्रधानत्वकाल वी0नि0 584 (वि0 114, ई0 सन् 57) से प्रारंभ होता है। आर्यरक्षित का युग विचारों का संक्रमण काल था। वह नई करवट ले रहा था। पुरातन परंपराओं के प्रति जनमानस में आस्थाएँ डगमगा रही थीं।
आर्यरक्षित स्थितिपालक नहीं थे। वे स्वस्थ परंपरा के पोषक थे। क्रांतिकारी विचारों के वे सबल समर्थक भी थे। चातुर्मास की स्थिति में दो पात्र रखने की प्रवृत्ति स्वीकार कर नई परंपरा को जन्म देने का साहस उन्होंने किया था। उनके शासनकाल में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य अनुयोग व्यवस्था का हुआ। आगम-वाचना का यह विशिष्ट अंग है। उससे पहले आगमों का अध्ययन समग्र नयों एवं चारों अनुयोगों के साथ होता था। अध्ययन क्रम की यह जटिल व्यवस्था थी। अस्थिरमति शिष्यों का धैर्य डगमगा जाता था। आर्यरक्षित के युग में अध्ययन की नई व्यवस्था प्रारंभ हुई। इसके मुख्य हेतु विन्ध्य मुनि बने थे। विन्ध्य मुनि प्रतिभा संपन्‍न, शीघ्रग्राही मनीषा के धनी थे। आर्यरक्षित द्वारा प्रदत्त आगम-वाचना को विन्ध्य मुनि तत्काल ग्रहण कर लेते थे। उनके पास अग्रिम अध्ययन के लिए बहुत-सा समय अवशिष्ट रह जाता था। आर्यरक्षित से विन्ध्य मुनि ने प्रार्थना की, मेरे लिए अध्ययन की व्यवस्था पृथक् रूप से करने की कृपा करें। आर्यरक्षित ने इस महनीय कार्य के लिए महामेधावी दुर्बलिका पुष्यमित्र को नियुक्‍त किया। कुछ समय बाद अध्यापनरत दुर्बलिका पुष्यमित्र ने आर्यरक्षित से निवेदन किया‘आर्य विन्ध्य को आगम-वाचना देने से मेरे पठित पाठ के पुनरावर्तन में बाधा पहुँचती है। इस प्रकार की व्यवस्था से मेरी अधीत पूर्व ज्ञान की राशि विस्मृत हो जाएगी।’
शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के इस निवेदन पर आर्यरक्षित ने सोचामहामेधावी शिष्य की यह स्थिति है। आगम-वाचना प्रदान करने मात्र से अधीत ज्ञानराशि के विस्मरण की संभावना बन रही है। ऐसी स्थिति में आगम ज्ञान को सुरक्षित रखना बहुत कठिन है। (क्रमश:)