उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य आर्यरक्षित

(क्रमश:) पूर्वां का अध्ययन करते हुए आर्यरक्षित ने आर्य वज्रस्वामी से पूछा‘भगवन्! अध्ययन कितना अवशिष्ट रहा है?’ आर्य वज्रस्वामी गंभीर होकर बोले‘यह प्रश्‍न पूछने से तुम्हें क्या लाभ है? तुम दत्तचित्त होकर पढ़ते जाओ।’ कई दिनों के बाद यही प्रश्‍न पुन: आर्यरक्षित ने आर्य वज्रस्वामी से पूछा तब वज्रस्वामी ने कहा‘वत्स! तुम सर्षप मात्र पढ़े हो; मेरु जितना शेष पड़ा है। तुम मोहवश पूर्वों के अध्ययन को छोड़ने की सोच रहे हो। यह कांजी के बदले क्षीर को, लवण के बदले कर्पूर को, कुसुम के बदले कुंकुम को, गुंजाफल के बदले स्वर्ण को छोड़ने जैसा है।’ गुरु से बोध पाकर आर्यरक्षित पुन: अध्ययन में स्थिर हुए और नवपूर्वों का पूर्ण भाग एवं दसवें पूर्व का अर्धभाग उन्होंने संपन्‍न कर लिया। अध्ययन के अंतराल काल में आर्य फल्गुरक्षित पुन:-पुन: ज्येष्ठ भ्राता को माता-पिता की स्मृति कराते रहते थे। द‍ृष्टिवाद के अथाह ज्ञान को ग्रहण करने में एक दिन आर्यरक्षित का धैर्य डोल उठा। उन्होंने वज्रस्वामी से निवेदन किया‘आप मुझे दशपुर जाने का आदेश दें, मैं शीघ्र शेष अध्ययन के लिए लौटकर आने का प्रयास करूँगा।’ आर्य वज्र ने ज्ञानोपयोग से जानामेरा आयुष्य कम है। आर्यरक्षित का मेरे से पुनर्मिलन होना असंभव है। दूसरा कोई व्यक्‍ति द‍ृष्टिवाद को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। दसवाँ पूर्व मेरे तक ही सुरक्षित रह पाएगा। ऐसा ही सुस्पष्ट दिख रहा है। आर्य व्रज ने आर्यरक्षित से कहा‘वत्स! परस्पर उच्चावच व्यवहार के लिए ‘मिच्छामि दुक्‍कडं’ है। तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो। तुम्हारा मार्ग शिवानुगामी हो। इतना कहकर वज्रस्वामी मौन हो गए। गुरु का आदेश प्राप्त कर उन्हें वंदन कर आर्यरक्षित फल्गुरक्षित के साथ वहाँ से चल पड़े। संयमपूर्वक यात्रा करते हुए बंधु सहित आर्यरक्षित पाटलिपुत्र पहुँचे। दीक्षाप्रदाता आर्य तोषलिपुत्र से प्रसन्‍नतापूर्वक मिले एवं उनसे सार्ध नौ पूर्वों के अध्ययन की बात कही। पूर्वधर आर्यरक्षित को सर्वथा योग्य समझकर आर्य तोषलिपुत्र ने आचार्य पद पर उनकी नियुक्‍ति की। आर्यरक्षित ने दशपुर की ओर प्रस्थान किया। मुनि फल्गुरक्षित ने आगे जाकर माँ को आर्यरक्षित के आगमन की सूचना दी। ज्येष्ठ पुत्र के दर्शनार्थ उत्कंठित जननी रुद्रसोमा पुत्रागमन की प्रतीक्षा कर रही थी। आर्यरक्षित आ पहुँचे।
बिना सूचना दिए अपने पुत्रों का यह आगमन पिता सोमदेव को अच्छा नहीं लगा। वे चाहते थे दोनों पुत्रों का नगर-प्रवेश भव्य उत्साह के साथ होता। सोमदेव ने विशेष स्वागतार्थ दोनों पुत्रों को नगर के बाह्य उद्यान में लौट जाने को कहा पर आर्यरक्षित ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। पिता सोमदेव का दूसरा प्रस्ताव था‘पुत्र! श्रमणवेश को छोड़कर अपने घर में रहो और रूप-यौवन-संपन्‍ना योग्य कन्या के साथ महोत्सवपूर्वक श्रौत विधि से विवाह कर परिवार का कुशलतापूर्वक संचालन करो। तुम्हारी माता को भी इससे आनंद प्राप्त होगा। गृहस्थ जीवन की गाड़ी को वहन करने के लिए धनोपार्जन की चिंता तुम्हें नहीं करनी होगी। दशपुर नरेश की कृपा से सात पीढ़ी सुख से रह सके, इतना द्रव्य मेरे पास है।’ अध्यात्म-साधना में रत आर्यरक्षित ने राजपुरोहित पिता सोमदेव को उद्बोधन देते हुए कहाविप्रवर! आप शास्त्रों का भार ही वहन कर रहे हो। आपने जीवन के यथार्थ को नहीं पहचाना है। जन्म-जन्म में माता-पिता, भ्राता-भगिनी, पत्नी, सुता आदि अनेक बार ये संबंध हुए हैं, इनमें क्या आनंद है? राजप्रसाद को भी भृत्य रूप में रहकर अर्जित किया है। इसमें भी गर्व किस बात का? अर्थ-संपदा अनर्थ की जननी है, बहुत उपद्रवकारिणी है। मनुष्य जन्म रत्न की तरह दुष्प्राप्य है। गृहमोह में फँसकर विज्ञ मनुष्य इसको खोया नहीं करते। मेरा द‍ृष्टिवाद का अध्ययन अभी पूर्ण नहीं हुआ है; मैं यहाँ रुक सकता हूँ? आपका मेरे प्रति सच्चा अनुराग है तो आप भी संयम-पथ का अनुगमन करें। आर्यरक्षित की धीर-गंभीर वाणी को सुनकर राजपुरोहित परिवार प्रतिबुद्ध हुआ एवं श्रमण धर्म में दीक्षित हुआ। सोमदेव का दीक्षा-संस्कार सापवादिक था। उन्होंने छत्र, जनेऊ, कौपीन एवं पादुका का अपवाद रखा। आर्यरक्षित मुनि सोम को इन अपवादों से मुक्‍त कर जैन-विहित संयम-विधि में स्थिर करने के लिए प्रयत्नशील बने।
(क्रमश:)