उपासना

स्वाध्याय

उपासना

 

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य आर्यरक्षित

(क्रमश:) मुनि रक्षित ने शीश झुकाकर अत्यंत विनीत भाव से आर्य भद्रगुप्त के मार्गदर्शन को स्वीकार किया। समाधिपूर्ण अवस्था में आर्य भद्रगुप्त के स्वर्गगमन के पश्‍चात् मुनि रक्षित ने वज्रस्वामी के पास न जाकर रात्रि में सोने की व्यवस्था उन्होंने अपनी अलग की। आर्य वज्रस्वामी ने ढलती रात में स्वप्न देखादूध से भरा कटोरा नवागंतुक पथिक आकर पी गया है पर कुछ पेय उसमें अवशेष रह गया है। प्रात: होते ही स्वप्न की बात वज्रस्वामी ने अपने शिष्यों से कही। वार्तालाप का यह प्रसंग पूर्ण भी न हो पाया था तभी अपरिचित अतिथि ने आकर वज्रस्वामी को वंदन किया। आर्य वज्रस्वामी ने पूछा‘तुम कहाँ से आ रहे हो?’ मुनि रक्षित बोले‘मैं आचार्य तोषलिपुत्र के पास से आ रहा हूँ।’ दूरदर्शी, सूक्ष्मचिंतक आर्य वज्रस्वामी ने कहा‘तुम आर्यरक्षित हो? अवशिष्ट पूर्वों का ज्ञान करने के लिए मेरे पास आए हो? तुम्हारे उपकरण, पात्र, कहाँ हैं? उनको यहीं ले आओ। यहाँ आहार-पानी की व्यवस्था कर अध्ययन-कार्य को प्रारंभ करो। पृथक् रहने से पूर्वों का अध्ययन कैसे कर पाओगे?’ मुनि रक्षित ने आर्य भद्रगुप्त द्वारा प्रदत्त मार्ग-दर्शन को कह सुनाया और अपनी पृथक् रहने की व्यवस्था भी बता दी। वज्रस्वामी ने भी ज्ञानोपयोग से समग्र स्थिति को जाना और आर्य भद्रगुप्त के निर्देशानुसार उनके पृथक् रहने की व्यवस्था को स्वीकार कर लिया। द‍ृष्टिवाद का पाठ विविध भंगों, पर्यायों एवं गंभीर शब्दों के प्रयोग से अत्यंत दुर्गम था। आर्यरक्षित ने स्वल्प समय में ही इस ग्रंथ के चौबीस यव पढ़ लिए। उनकी अध्ययनशीलता और क्षमता अद्भुत थी। इधर दशपुर में रूद्रसोमा को पुत्र की स्मृति बाधित करने लगी। उसने सोचा, घर में दीपक की तरह प्रकाश करने वाला पुत्र चला गया। इससे सारा वातावरण अंधकारमय हो गया है। सोमदेव से परामर्श कर रुद्रसोमा ने कनिष्ठ पुत्र फल्गुरक्षित से कहा‘पुत्र! मेरा संदेश लेकर ज्येष्ठ भ्राता के पास जाओ। उनसे कहना‘भ्रात! आपने संसार का मोह त्याग दिया है, पर माता-पिता का आपके प्रति मोह है। जननी रात-दिन आपको याद कर रही है। उसने आपके लिए संदेश भेजा है और तीर्थंकर महावीर ने भी मातृ-भक्‍ति को प्रधान माना था। उन्होंने गर्भावास में ही माता-पिता के रहते दीक्षा न लेने की प्रतिज्ञा कर माता के प्रति अपूर्व भक्‍ति का उदाहरण प्रस्तुत किया। संतश्रेष्ठ! आपका घर से अनुबंध नहीं है पर माँ के द्वारा किए गए उपकार का स्मरण करते हुए आप एक बार अवश्य दशपुर पधारें। पिता के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट करें और माता का आशीर्वाद लें।’ फल्गुरक्षित माँ का आदेश प्राप्त कर वहाँ से चले। आर्यरक्षित के पास पहुँचे। माँ की भावना को उनके पास रखते हुए बोलेमुने! माँ आपके वियोग में दु:खी है। आपके दर्शनों के लिए लालायित हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते आपके नाम का स्मरण कर रही है। उसने आपको बुलाया है। आप घर पर चलें और जननी की भावना को पूर्ण करें। आपके दर्शन से पूज्या माँ को, पिताजी को और परिवार वालों को असीम खुशी होगी। आपका उपदेश सुनकर वे भी इस पथ का अनुसरण कर सकते हैं। मुनि बनने के लिए एक भी व्यक्‍ति तैयार हुआ तो यह भारी उपकार का काम होगा। बंधु की बात सुनकर आर्यरक्षित शांत और धीमे स्वर में बोलेफल्गुरक्षित! मोह ही बंधन का कारण है। बंधन ही दु:ख है। बंधन-मुक्‍त होने के लिए अध्यात्मपथ का अनुसरण करना आवश्यक है। तुम्हारा मेरे प्रति आंतरिक मोह है तो मेरे पथ का अनुसरण करो। माता-पिता के दीक्षित होने की बात कहते हो तो पहले तुम ही मुनि बन जाओ। आर्यरक्षित के उपदेश से फल्गुरक्षित दीक्षित हो गए। मुनिचर्या के नियमों का सजगता से पालन करते। जब भी दोनों बंधु एकांत में मिलते, मुनि फल्गुरक्षित जननी को दर्शन देने की बात आर्यरक्षित को याद करा देते थे। बंधु द्वारा बार-बार माँ की प्रार्थना सुनने से आर्यरक्षित के विचारों में मोड़ आया। चिंतन की धारा बदली। दशपुर जाने की भावना बन गई।

(क्रमश:)