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स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह

(32) जाते: कुलस्य रूपस्य, न बलस्य श्रुतस्य च।
नैश्‍वर्यस्य न लाभस्य, न मदं तपस: सृजेत्॥
जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, ऐश्‍वर्य, लाभ और तप का मद न करें।

(33) न तुच्छान् भावयेज्जीवान्, न तुच्छं भावयेन्‍निजम्।
सर्वभूतात्मभूतो हि, स्यादहिंसापरायण:॥
दूसरों को तुच्छ न समझें और अपने को भी तुच्छ न समझें। जो सब जीवों को आत्मभूतअपने तुल्य समझता है, वह अहिंसा-परायण है। उपरोक्‍त श्‍लोकों में अहिंसा का समग्र रूप प्रतिपादित हुआ है। जीवघात ही हिंसा नहीं है, दूसरों पर अनुशासन करना, धोखा देना, अपने अधीन रखना, दु:ख देना, दास बनाना, आदि प्रवृत्तियाँ भी हिंसा है। जो अहिंसक होता है, वह ऐसा नहीं कर सकता। अहिंसा सभी व्रतों का सार है। कहा गया है कि अहिंसा ही व्रत है ओर दूसरे सारे व्रत उसी के पोषक हैं। जो अहिंसा का सही अर्थ में पालन करता है, वह सत्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी व्रतों का पालन करता है। डराना हिंसा है तो डरना भी हिंसा है। अहिंसा डरना नहीं सिखाती। वह व्यक्‍ति में अभय की शक्‍ति जगाती है। वास्तव में वही व्यक्‍ति अभय हो सकता है, जो अहिंसक है।
अहिंसा की प्राप्ति के लिए हिंसा के कारणों का विसर्जन भी अपेक्षित है। हिंसा के हेतु हैंविरोध, भय, दूसरों के अधिकारों को कुचलना, अभिमान, दूसरों को हीन मानना और स्वयं को भी हीन मानना। वैर से वैर बढ़ता है, प्रतिशोध की भावना प्रबल होती है। इसलिए अहिंसक सबके साथ मैत्री का संकल्प करता है। उसका घोष हैमेरी सबके साथ मैत्री है, किसी के साथ शत्रु-भाव नहीं हैं। भय से भी हिंसा का विस्तार होता है। भयभीत व्यक्‍ति प्रतिक्षण आशंकाओं से घिरा रहता है। अर्थ-नाश का भय, मृत्यु का भय, अपयश का भय, रोग का भय आदि भयों से उसका चिंतन हिंसोन्मुख रहता है। भयभीत व्यक्‍ति हजारों बार मरता है। जो व्यक्‍ति अभय है, उसे ये भय नहीं सताते और न वह अपने जीवन में अनेक बार मरता है। इसलिए भगवान् ने कहा हैअहिंसक न स्वयं डरे और न दूसरों को डराए। डरना और डराना दोनों ही हिंसा है। दूसरों के अधिकारों का अपहरण करने से उनमें प्रतिशोध का भाव बढ़ता है। स्वयं में भय जगता है, प्रतिकार के उपायों से ध्यान आर्त्त बनता है, अत: किसी के अधिकारों को मत कुचलो। अभिमान हिंसा है। दूसरों को हीन और अपने को ऊँचा मानना वह उसका लक्षण है। यह असमानता की वृत्ति व्यक्‍ति के मन में हिंसा का ज्वार पैदा करती है और उसका प्रतिफल अनेक कटुरूपों में फलित होता है। इसे आज कौन नहीं जानता। अहिंसा की साधना का अर्थ हैसदा विनम्र रहना और सबको अपने जैसा मानना। भगवान महावीर ने कहा है‘नो हीणे नो अइरित्ते’ अपने-आपको न हीन समझो और न ऊँचा समझो। यह समता का मंत्र है और यह दूसरों के यथार्थ अस्तित्व का स्वीकरण है। दूसरों को तुच्छ मानना हिंसा है तो अपने आपको भी तुच्छ मानना हिंसा है। इससे आत्मा का शौर्य विलुप्त हो जाता है। व्यक्‍ति में घबराहट पैदा हो जाती है। वह अकाल में ही काल-कवलित हो जाता है। हीन वृत्ति वाला मनुष्य अपना, समाज, देश और राष्ट्र का भला नहीं कर सकता। अध्यात्म-क्षेत्र में प्रवेश करने से वह वंचित रह जाता है। हीन मनोवृत्ति वाले का मन सदा हीन भावना से घिरा रहता है। वह अपने ही हीन संकल्पों से हीनता की ओर बढ़ता रहता है। ‘मैं दरिद्र हूँ, मैं अस्वस्थ हूँ, मैं अशक्‍त हूँ, मैं अयोग्य हूँ’ये संकल्प व्यक्‍ति को वैसा ही बना देते हैं। आज के चिकित्सक यह मानते हैं कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रंथियाँ हैं, जिनसे वह अपने को हीन मानने लगता है। वे चिकित्सा कर उसे हीन-भावना से मुक्‍त कर देते हैं। लेकिन मनोवैज्ञानिक और अध्यात्म-द्रष्टाओं की विचारधारा में इसकी सफल चिकित्सा हैहीन भावनाओं के स्थान पर उच्च संकल्पों को स्थान देना। मानसिक संकल्प के द्वारा अनेक रोगियों को आज रोग-मुक्‍त किया जाता है। तब यह हीन-भावना का मानसिक रोग संकल्पों से दूर क्यों नहीं किया जा सकता? मनुष्य सदा पवित्र संकल्पों को दोहराए और कुछ क्षण उनका चिंतन करे तो उस पर इसका जादू का-सा असर होता है, हीन भावनाएँ स्वत: ही नष्ट हो जाती हैं। संकल्प यों हो सकते हैं
मैं स्वस्थ हूँ। मैं ऐश्‍वर्यशाली हूँ। मैं शक्‍ति-संपन्‍न हूँ। मैं योग्य हूँ। मैं शुद्ध, बुद्ध और परमात्मरूप हूँ।
(क्रमश:)