आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान की मुद्रा

प्रश्‍न : आसन का उपयोग केवल ध्यान के लिए ही है या दूसरा भी? ध्यान नहीं करने वाले लोग भी नियमित रूप से योगासन करते हैं। कुछ लोग तो आसन को ही योग मानते हैं। योग की कक्षाओं में केवल आसन ही तो सिखाए जाते हैं। योग शब्द किसी पूरी परंपरा का वाचक है या केवल आसन-क्रियाओं का?
उत्तर : ध्यान के लिए तो आसन किए ही जाते हैं, उसके अतिरिक्‍त शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी योगासन किए जाते हैं। शरीर और मन की अस्वस्थता का प्रमुख कारण हैशरीर-तंत्र के पुर्जों का सही रूप में काम नहीं करना। आलस्य और अतिश्रमये दोनों स्थितियाँ ऐसी हैं, जिनमें शरीर-तंत्र अव्यवस्थित हो सकता है। इस अव्यवस्था को रोकने के लिए साधक को आसन-योग का प्रशिक्षण मिलता है। कई आसनों का प्रयोग इंद्रियों और मानसिक विकारों पर काबू पाने के लिए करवाया जाता है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में आसनों का एक निश्‍चित क्रम है। उपर्युक्‍त आसनों के अतिरिक्‍त बहुत प्रकार के आसन हैं, जिनके समुचित प्रयोग से ऊर्जा संतुलित होती है, शरीर में हलकापन आता है, स्फूर्ति और दीप्ति बढ़ती है, अतिरिक्‍त चर्बी समाप्त होती है और स्नायविक द‍ृढ़ता बढ़ती है। आसन योग का एक अंग है। हठयोग का यह प्रमुख अंग है। किंतु समूचा योग इस एक क्रिया में अंतर्गर्भित नहीं हो सकता। आचार्य हरिभद्र ने तो उन सब क्रियाओं को योग कहा है, जो साधक को बंधन से मुक्‍ति की ओर अग्रसर करती हैं। योग के आचार्यों ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। यद्यपि आज आसनों के लिए योग शब्द का प्रयोग प्रचलित हो गया है, पर वह योग की पूर्णता नहीं है। आसन, ध्यान, तप आदि विविध क्रियाओं का एक व्यवस्थित क्रम है, जिससे होकर योग के साधकों को गुजरना होता है।
जैन आगमों में योगासन के लिए स्थान शब्द का प्रयोग मिलता है। वहाँ स्थानयोग के तीन प्रकार बतलाए हैंऊर्ध्वस्थान, निषीदनस्थान और शयनस्थान। आगम का मूलभूत उद्देश्य हैस्थिर होना। इस द‍ृष्टि से स्थान शब्द का चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह स्थिति का सूचक है। खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना, ऊर्ध्वस्थान; बैठे-बैठे आसन करना, निषीदन स्थान; और लेटकर आसन करना, शयन-स्थान कहलाता है। प्रेक्षाध्यान का अभ्यासार्थी इन सभी सुखद आसनों को साधने का प्रयोग करता है।
प्रश्‍न : शरीर को साधने के लिए आसनों के प्रयोग की बात समझ में आती है पर उसका प्रभाव मन पर क्या और कैसे होता है?
उत्तर : आसनों का प्रभाव प्रमुख रूप से शरीर पर होता है। किंतु जब इनका अभ्यास दीर्घकालिक हो जाता है, तब ये हमारी अंत:ावी ग्रंथियों पर भी अपना प्रभाव छोड़ने लगते हैं। उदाहरण के लिए सर्वांगासन कंठमणि (थायराइड ग्रंथि) को प्रभावित करता है। शशांकासन और पश्‍चिमोत्तानासन का प्रभाव उपवृक्‍कग्रंथि (एड्रिनल) पर होता है। इसी प्रकार कुछ अन्य आसनों से पिच्यूटरी, पीनियल आदि ग्रंथियाँ सक्रिय होती हैं, उनके ाव बदलते हैं और उनसे चाहे-अनचाहे मन पर प्रभाव पड़ता है। वैसे शरीर के किसी भी हिस्से में परिवर्तन होता है, वह स्थूल या सूक्ष्म रूप में समूचे शरीर-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर और मन परस्पर जुड़े हुए हैं। शारीरिक बीमारी मन पर भी अपना असर छोड़ती है, इसी प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य भी मन की स्वस्थता में निमित्त बनता है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। इस तथ्य को सत्यांश माना जाए तो भी यह बात प्रमाणित हो जाती है कि आसनों के नियमित प्रयोग से शरीर और मन दोनों में रूपांतरण घटित हो सकता है।
प्रश्‍न : आसन का संबंध केवल बैठने या खड़े रहने से ही है या इसमें शरीर की अवस्थिति पर समग्रता से विचार किया गया है?
उत्तर : एकांगी विचार कभी पूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए आसन के साथ भी कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्‍न जुड़े हुए हैं, जैसेपृष्ठरज्जु (रीढ़ की हड्डी) कैसे रहे? शरीर सीधा तना हुआ रहे या झुका हुआ? आँखें खुली हों या बंद? हाथ कहाँ रहे? आदि। पृष्ठरज्जु हमारा केंद्रीय नाड़ी संस्थान है। उसका शारीरिक परिवर्तन और मानसिक क्रियाओं के साथ गहरा संबंध है। प्राणऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा का भी वह एक मार्ग है। ध्यान की स्थिति में जाने से पूर्व ज्ञान-केंद्र से शक्‍ति-केंद्र तक प्राणधारा को पृष्ठरज्जु के द्वारा ही प्रवाहित किया जाता है। संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि पृष्ठरज्जु की स्वस्थता पूरे शरीर की स्वस्थता है और इसके आधार पर ध्यान-साधना के विकास की संभावना की जा सकती है। ध्यानकाल में पृष्ठरज्जु बिलकुल सीधी रहे, यह पहली शर्त है। शरीर थोड़ा-सा आगे की ओर झुका रहे। शरीर का पीछे की ओर झुकना ठीक नहीं है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक रीढ़ की हड्डी को सीधा रखकर उससे ऊपर का भाग आगे की ओर झुका हुआ होना चाहिए।
आँखों की तीन स्थितियाँ हैंमुंदी हुई, खुली हुई और अर्ध-निमीलित। खुली हुई आँखों में बाहरी विघ्नों की अधिक संभावना रहती है। मुंदी हुई आँखों में विकल्पों और नींद की संभावना रहती है। अर्ध-निमीलित आँखों में इन दोनों संभावनाओं से बचाव है। इस द‍ृष्टि से अर्ध-निमीलित स्थिति को सबसे अच्छा माना गया है। अर्हत की ध्यान-मुद्रा में भी आँखों की यही स्थिति निदर्शित की गई है। आखिरी बात है हाथ कहाँ रहे? इन प्रश्‍न पर दो द‍ृष्टियों से विचार किया गया है। खड़े-खड़े ध्यान करने के लिए प्रलंबितभुजहाथ सीधे रखने का उल्लेख मिलता है। बैठकर ध्यान करना हो तो हाथ नाभि से कुछ नीचे गोद पर पेडू से सटे हुए हों, बाएँ हाथ पर दाएँ हाथ की अवस्थिति हो। यह एक प्रकार की ध्यान-मुद्रा है। अभ्यास पुष्ट होने पर अन्य किसी भी मुद्रा में बैठकर ध्यान किया जा सकता है। वैसे ध्यान के लिए सबसे अच्छी स्थिति खड़े-खड़े ध्यान करना है। क्योंकि उसमें ऊर्जा का पूरा वलय बनता है। बैठकर ध्यान करने से कुछ अवरोध आ सकता है। फिर भी अभ्यासकाल में बैठे-बैठे ध्यान का प्रयोग करवाया जाता है। यह मध्यम स्थिति है। अभ्यासार्थी साधकों के लिए यही अधिक उपयुक्‍त है।

(क्रमश:)