आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान की पूर्व तैयारी

आलस्य, मैथुन, नींद, भूख और क्रोधये पाँच विकृतियाँ ऐसी है, जो सेवित होने पर बढ़ती रहती हैं। इनमें नींद भी एक है। इस संबंध में कुछ व्यक्‍तियों ने प्रयोग किया है। एक व्यक्‍ति निरंतर अधिक समय सोकर आठ-दस घंटे तक सो सकता है, निद्रा ले सकता है। आठ घंटा सोने वाला व्यक्‍ति अभ्यास करते-करते ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ उसे दो-तीन घंटे की नींद से पूर्ण विश्राम मिल जाता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि नींद को सहारा मिलने से वह बढ़ती है और संकल्प की द‍ृढ़ता तथा नियमितता से वह कम हो सकती है। साधक के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह नींद को बिलकुल कम कर दे, पर इतना तो जरूरी है ही कि वह चार बजे के आसपास नींद से छुटकारा पा ले। जिस साधक की चर्या का समय निश्‍चित नहीं होता, प्रारंभ में उसे चार बजे उठने में कुछ कठिनाई हो सकती है, पर आदत बदल जाने के बाद क्रम अपने आप ही बदल जाता है। चार बजे का समय साधक के लिए बहुत महत्त्व का समय है। क्योंकि उस समय ऐसे परमाणुओं की वर्षा होती है, जो स्फूर्ति-उल्लास, आनंद और चेतना को विकसित करने वाले हैं। जागरण का यह समय स्वास्थ्य और ध्यानदोनों ही द‍ृष्टियों से उपयुक्‍त प्रतीत होता है।
प्रश्‍न : नींद से उठते ही ध्यान में बैठ जाना चाहिए या पहले और कुछ करना चाहिए?
उत्तर : जागरण के तत्काल बाद ध्यान में बैठा जा सकता है, पर ध्यान-काल में शरीर के किसी भी आवेश की बाधा नहीं रहनी चाहिए। इस द‍ृष्टि से उठने के बाद शौचादि से निवृत्त होने को प्राथमिकता दी गई है। नित्य कर्म करने के बाद व्यक्‍ति नई ताजगी और स्फूर्ति का अनुभव करता है। इस स्थिति में आलस्य स्वयं दूर हो जाता है और मानस ध्यान के लिए तैयार हो जाता है। नींद टूटते ही बिछौने पर बैठे-बैठे ध्यान करने से निद्रा के परमाणुओं द्वारा आक्रमण की संभावना बनी रहती है इसलिए प्रात:कालीन आवश्यक कार्यों से निबटने के बाद ध्यान की तैयारी कर लेनी चाहिए। वैयक्‍तिक रूप से साधना करने वाले अकेले ही ध्यान में बैठते हैं, पर शिविर काल में सामूहिक रूप में ध्यान का अभ्यास करवाया जा सकता है।
प्रश्‍न : ध्यान का अभ्यास सामूहिक रूप में करना चाहिए या व्यक्‍तिगत रूप से?
उत्तर : प्राचीन काल में व्यक्‍तिगत ध्यान पर ही अधिक बल दिया जाता था। ‘तओ झाएज्ज एगओ’ आदि आगम वाक्य इसी तथ्य को पुष्ट करने वाले हैं। वर्तमान में अकेला व्यक्‍ति ध्यान नहीं कर सकता, ऐसा कोई नियम नहीं है। ध्यान के विशेष प्रयोग करने वाले तथा अपने घर, ऑफिस आदि में ध्यान करने वालों को बड़े समूह कहाँ मिलते हैं? फिर भी आजकल ‘ग्रुप मेडिटेशन’ का प्रयोग बहुत प्रचलित हो रहा है। नए सीखने वालों को शिविर-काल में कम-से-कम चार बार सामूहिक रूप से ध्यान करवाया जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि समूह-ध्यान से वहाँ का पर्यावरण (एनवायरनमेंट) बदल जाता है। अकेला ध्यान करने वाला व्यक्‍ति दुर्लभ होता है और उसे उपयुक्‍त वातावरण नहीं मिलता है तो वह अपने मन को एकाग्र नहीं बन सकता। एक साथ अनेक व्यक्‍ति बैठते हैं, इससे प्राण शक्‍ति प्रबल हो जाती है। एक व्यक्‍ति की शक्‍ति दूसरे को प्राप्त हो सकती है। इस द‍ृष्टि से सामूहिक ध्यान का विशेष मूल्य है। ध्यान की तैयारी के लिए पहली अपेक्षा हैमुक्‍त मन या खाली दिमाग। मनुष्य अकेला होता है, उस समय भी वैचारिक द‍ृष्टि से वह अकेला नहीं होता। उसके मस्तिष्क में विचारों का द्वंद्व चलता रहता है। मस्तिष्क का प्रभाव मन पर पड़ता है। मन में नए-नए संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। संकल्प-विकल्पों में उलझा हुआ मन ध्यान के योग्य नहीं होता। इसलिए संकल्पपूर्वक मन को खाली रखने का अभ्यास करना जरूरी है।

ध्यान की मुद्रा

खाली कर मस्तिष्क को, करना आसन-योग।
तन लाघव हित जो सहज, समुचित सफल प्रयोग॥
सुख से जो आसन सधे, साधे होकर शांत।
ऊर्ध्व-निषीदन-स्थान में, हो एकाग्र नितांत॥
पृष्ठरज्जु सीधी रहे, ईषत कुंचित गात।
अर्धनिमीलित नयन-युग, अंक मध्यगत हाथ॥
प्रश्‍न : ध्यान के लिए आसन, प्राणायाम आदि की भी कोई अपेक्षा है या केवल मन और मस्तिष्क को विचारों से खाली कर लेने पर ध्यान के अनुरूप स्थिति का निर्माण हो जाता है?
उत्तर : कोई भी साधना पद्धति एकांगी नहीं हो सकती। उसमें शरीर, मन और आत्मातीनों को साधने के उपक्रम बताए जाते हैं। क्योंकि तीनों परस्पर संबद्ध हैं और एक-दूसरे के प्रभाव से प्रभावित होते हैं। पे्रक्षाध्यान की साधना में तीन-गुप्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें सबसे पहली हैकायगुप्ति। कायगुप्ति अर्थात शरीर का गोपन करना, शरीर को साधना, शरीर पर नियंत्रण करने की क्षमता अर्जित करना। शरीर को साधे बिना वचन और मन को साधना कठिन है। क्योंकि शरीर इनमें सबसे अधिक स्थूल है। जो स्थूल है, वह सरलता से पकड़ में आ सकता है। ध्यान और कायोत्सर्ग के समय ‘ठाणेणं मोणेणं झाणेणं’ का जो क्रम है, वह भी पहले कायगुप्ति का संकेत करता है। आसन भी कायगुप्ति का ही एक प्रकार है। ध्यान के समय किस आसन में बैठना चाहिए? यह एक प्रश्‍न है। इस संबंध में हमारा कोई आग्रह नहीं है। जो साधक जिस समय जिस आसन में सुखपूर्वक और सरलता से बैठ सके, उसके लिए वही आसन उपयुक्‍त है। फिर भी इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आसनों के नियमित और व्यवस्थित प्रयोग में जो निष्णात हो जाते हैं, उन्हें ध्यान करने में सुविधा रहती है। इस द‍ृष्टि से ध्यान के लिए दो-चार आसन सुझाए जा सकते हैं, जैसेअर्धपद्मासन, पद्मासन, वज्रासन, पालथी लगाकर बैठना आदि। ये सभी सुखासन हैं और ध्यान के लिए उपयोगी हैं।
(क्रमश:)