उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य महाश्रमण

आचार्य वज्रस्वामी

(क्रमश:) कालिक सूत्रों की अपृथक्त्व व्याख्यान पद्धति (प्रत्येक सूत्र का चरणकरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों से विभागश: विवेचन) भी आर्य वज्रस्वामी के बाद अवरुद्ध हो गई। वज्रस्वामी दशपूर्वधर थे। वे पदानुसारी लब्धि, क्षीरावलब्धि आदि के धारक गगनगामिनी विद्या के उद्धारक, नानारूप निर्मात्री विद्या के स्वामी थे। दशपूर्वों की विशाल ज्ञानराशि के अंतिम संरक्षक आर्य वज्र ही थे। उनके बाद ऐसी क्षमता किसी को भी प्राप्त न हो सकी। महानिशीथ सूत्र के तृतीय अध्ययन में प्राप्त उल्लेखानुसार, पंचमंगल श्रुतस्कंध को मूल सूत्रों के साथ नियोजित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया था। उससे पहले पंचमंगल महाश्रुतस्कंध (नमस्कार महामंत्र) एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित था। इस सूत्र की व्याख्या में कई निर्युक्‍ति भाष्य और चूर्णि ग्रंथ भी थे। कालक्रम से ये लुप्त हो गए।
वज्रस्वामी नौ वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे, उनका जन्म के बाद छह मास तक का समय माँ के संरक्षण में बीता। उसके बाद उनका पालन-पोषण गुरु नेश्राय में शय्यातर के घर पर हुआ। उनकी कुल आयु अट्ठासी वर्ष थी। मुनि पर्याय की कुल अस्सी वर्ष की कालस्थिति में लगभग छत्तीस वर्ष तक उन्होंने युगप्रधान पद पर रहकर धर्मसंघ का सफलतापूर्वक संचालन किया। विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्रस्वामी वी0नि0 584 (वि0सं0 114, ई0 सन् 57) में स्वर्गवासी हुए।
अतिशय विद्याओं के धनी, विलक्षण वाग्मी आर्य वज्र जैनधर्म के सबल आधार-स्तंभ थे।

आचार्य आर्यरक्षित

अनुयोग-व्यवस्थापक आर्यरक्षित की गणना युगप्रधान आचार्यों में है। पूर्वधर आचार्यों में भी उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आयरक्षित अंतिम सार्ध नौ पूर्वधर थे। उन्होंने जैनशासन में कई नई प्रवृत्तियों की स्थापना की और विकास का द्वार खोला।
आर्यरक्षित के गुरु आर्य तोषलिपुत्र थे। आर्यरक्षित ने दीक्षाप्रदाता गुरु तोषलिपुत्र से आगमों का अध्ययन किया तथा पूर्वों का अध्ययन उन्होंने दश पूर्वधर वज्रस्वामी के पास किया था। अत: तोषलिपुत्र आर्यरक्षित के दीक्षा गुरु थे और विद्यागुरु भी थे। आर्य वज्रस्वामी उनके पूर्वज्ञानप्रदाता विद्यागुरु थे। आर्यरक्षित का जन्म मध्यप्रदेशअंतर्गत (मालव) दशपुर (मंदसौर) निवासी ब्राह्मण परिवार में वी0नि0 522 (वि0 52, ई0पू0 5) में हुआ। आर्यरक्षित के पिता का नाम सोमदेव और माता का नाम रुद्रसोमा एवं लघु भ्राता का नाम फल्गुरक्षित था। आर्यरक्षित के पिता सोमदेव को दशपुर नरेश उदायन के यहाँ राजपुरोहित का सम्मानित स्थान प्राप्त था। राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी रुद्रसोमा उदारहृदय और प्रियभाषिणी महिला थी। वह जैनशासन की द‍ृढ़ उपासिका थी।
वर्णज्येष्ठ, कुलज्येष्ठ, क्रियानिष्ठ, कलानिधि सोमदेव को नागरिक जनों से विशेष आदर भाव प्राप्त था। उसके दो पुत्र थेआर्यरक्षित और फल्गुरक्षित। दोनों पुत्र सूर्याश्‍व की भाँति कुल की धुरा को वहन करने में सक्षम थे। पुरोहित सोमदेव ने दोनों पुत्रों को वेदों का सांगोपांग अध्ययन करवाया। आर्यरक्षित को अपने अध्ययन से संतोष नहीं था। उसमें उच्च शिक्षा पाने की तीव्र उत्कंठा थी। पुत्र की भावना को समझकर पिता ने विशिष्ट अध्ययन के लिए उसे पाटलिपुत्र भेजा। पाटलिपुत्र उच्च शिक्षा का केंद्र था। रक्षित ने वहाँ पर रहकर वेद-वेदांग आदि चतुर्दश विद्याओं का गहन अध्ययन किया। यथेप्सित अध्ययन कर लेने के बाद उपाध्याय का आदेश प्राप्त कर विद्वान् रक्षित दशपुर लौटा। राजपुरोहित-पुत्र होने के कारण आर्यरक्षित को राज-सम्मान प्राप्त हुआ तथा नागरिकों ने हार्दिक अभिवादन किया। सभी का भव्य स्वागत स्वीकार करता हुआ रक्षित माँ के पास पहुँचा। रुद्रसोमा सामायिक कर रही थी। उसने आशीर्वाद देकर अपने पुत्र का वर्धापन नहीं किया। राजसम्मान पा लेने पर भी माँ के आशीर्वाद के बिना जननी-वत्सल आर्यरक्षित खिन्‍न था। उसने सोचामैं शास्त्र समूह को पढ़ लेने पर भी माँ को तोष नहीं दे सका। सुत के उदासीन मुख को देखकर सामायिक संपन्‍नता के बाद रुद्रसोमा बोली‘पुत्र! जो विद्या तुझे आत्मबोध न करा सकी उससे क्या? मेरे मन को प्रसन्‍न करने के लिए आत्मकल्याणकारी जिनोपदिष्ट द‍ृष्टिवाद का अध्ययन करो।’ आर्यरक्षित ने चिंतन किया‘द‍ृष्टिवाद का नाम भी सुंदर है। इसका अध्ययन मुझे अवश्य करना चाहिए।’ माँ से आर्यरक्षित ने द‍ृष्टिवाद के अध्यापनार्थ अध्यापक का नाम जानना चाहा। रुद्रसोमा ने बताया‘अगाध ज्ञान के निधि, द‍ृश्टिवाद के ज्ञाता आर्य तोषलिपुत्र नामक आचार्य इक्षुवाटिका में विराज रहे हैं। जाओ पुत्र! उनके पास अध्ययन प्रारंभ करो। तुम्हारी इस प्रवृत्ति से अवश्य ही मुझे शांति की अनुभूति होगी।’
(क्रमश:)