संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह

(22) अविहिताऽनिषिद्धा च, तृतीया वृत्तिरस्य सा।
सर्वहिंसापरित्यागी, नाऽसौ तेन प्रवर्तते॥

गृहस्थ की तीसरी वृत्ति जो है, वह न विहित है और न निषिद्ध है। वह सर्व-हिंसा का परित्यागी नहीं होता, इसलिए उस वृत्ति का अवलंबन लेता है। वृत्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं
(1) विहितजिनका विधान किया गया है, जैसेधर्म की उपासना करना, अहिंसा का आचरण करना।
(2) निषिद्धजिनका निषेध किया जाता है, जैसेमांस का व्यापार न करना, व्यभिचार न करना आदि।
(3) न विहित, न निषिद्धजिसका न विधान होता है और न निषेध, जैसेविवाह करना, व्यापार करना आदि। इन प्रवृत्तियों के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता। इस श्‍लोक में यही समझाया गया है कि गृहस्थ संपूर्ण रूप से हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, क्योंकि एक गृहस्थ के नाते उसे अनेक जिम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। वह भिक्षा से अपना जीवन नहीं चला सकता, अत: उसे व्यापार करना पड़ता है। व्यापार में हिंसा भी होती है। वह वाहनों का उपयोग करता है। आवश्यकतावश छह जीवों का समारंभ भी करता है। उसकी समस्त पापमय प्रवृत्तियों का निषेध नहीं किया जा सकता। हिंसा हिंसा है, परंतु क्षेत्र या अवस्था भेद से वह विहित या अविहित होती है।

(23) हिंसाविधानं नो शक्यं, तेन साऽविहिता खलु।
अनिवार्या जीविकायै, निरोद्धुं शक्यते न तत्॥

हिंसा का विधान नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अविहित है और आजीविका के लिए जो अनिवार्य हिंसा हो उसका निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अनिषिद्ध है। पूर्ण अहिंसक व्यक्‍ति की अपनी मर्यादा होती है। वह हिंसा का निषेध और अहिंसा के आचरण का उपदेश देता है। आवश्यक हिंसा का भी अनुमोदन या विधान उसके द्वारा नहीं हो सकता। अहिंसक के सामने आवश्यकता और अनावश्यकता का प्रश्‍न मुख्य नहीं होता। जीवन और मृत्यु का प्रश्‍न भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। उसके सामने मुख्य प्रश्‍न होता हैअहिंसा की सुरक्षा। हिंसा उसे किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं होती। इसलिए वह हिंसा का विधान कर ही नहीं सकता। वह अहिंसा के पालन के लिए प्राणों का विसर्जन भी करने में तत्पर होता है, किंतु न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों को उस ओर प्रेरित करता है।
दूसरी बात यह है कि वह हिंसा न करने का सर्वथा निषेध भी नहीं कर सकता। क्योंकि गृहस्थ जीवन में अनिवार्य हिंसा से बचा नहीं जा सकता। यदि वह उसका निषेध करता है तो उसका कथन अव्यवहार्य बन जाता है। अत: उसे मध्यम-मार्ग का अवलंबन लेना पड़ता है।

(24) द्विविधो गृहिणां धर्म, आत्मिको लौकिकस्तथा।
संवरो निर्जरा पूर्व:, समाजाभिमतोऽपर:॥

गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का होता हैआत्मिक और लौकिक। आत्मिक-धर्म के दो प्रकार हैंसंवर और निर्जरा। समाज के द्वारा अभिमत धर्म को लौकिक धर्म कहा जाता है। धर्म दो प्रकार का हैआत्मिक और लौकिक। सामायिक, संवर, पौषध, त्याग, ध्यान, तपस्या आदि आत्मिक धर्म है। इसमें अहिंसा आदि धर्मों का विमर्श और आचरण मुख्य होता है। संक्षेप में आत्माभिमुखी सारी प्रवृत्तियाँ आत्मिक धर्म के अंतर्गत आती हैं। लौकिक धर्म का अर्थ हैसमाज द्वारा अभिमत आचार। इसमें हिंसा-अहिंसा का विचार मुख्य नहीं होता, मुख्य होता है सामाजिक आचार, नीति। समाज धर्म समाज-सापेक्ष होता है। वह ध्रुव नहीं होता, परिवर्तनशील होता है। लौकिक धर्म की विचारणा में मोक्ष का विमर्श गौण होता है, सामाजिक अभ्युदय का विचार मुख्य होता है। (क्रमश:)