समता की साधना कर बने विशेष प्रसन्‍न : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

समता की साधना कर बने विशेष प्रसन्‍न : आचार्यश्री महाश्रमण

मंगरोप, 20 नवंबर, 2021
मेवाड़ भूमि की वस्त्र नगरी भीलवाड़ा के आदित्य विहार में ऐतिहासिक चातुर्मास की संपन्‍नता के पश्‍चात जैन श्‍वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकाशन अधिशास्ता, अरुण परिव्राजक, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने तेरापंथ नगर में प्रात: 8:41 बजे अपने चरण गतिमान मिले तो भीलवाड़ावासियों की भावनाएँ अश्रुधारा बनकर बहने लगी। हर कोई अपने आराध्य को जाते हुए निहार रहा था। प्रकृति भी भीलवाड़ावासियों की अश्रुधारा के साथ नम होकर बरस रही थी। भीलवाड़ावासी अपने आराध्य को अनचाहे मन से विदा कर रहे थे उनकी भावना सजल नेत्रों के साथ आचार्यप्रवर को रुकने के लिए निवेदन कर रही थी। परंतु चातुर्मास पश्‍चात महासाधक आचार्यप्रवर ने ज्यों ही प्रस्थान किया तो जयघोष के साथ जनमेदिनी भी अपने आराध्य का अनुसरण करते हुए चल पड़ी। हल्की बूँदा-बाँदी के बीच भी आचार्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ 12:5 किलोमीटर का विहार कर मंगरोप के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में पधारे। अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने विदाई के क्षणों में भीलवाड़ावासियों को अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि अर्हत् वाङ्मय में कहा गया हैआदमी प्रसन्‍न रहना चाह सकता है। कौन आदमी प्रसन्‍न नहीं रहना चाहता? प्रसन्‍न रहने के लिए जो प्रयास या स्थिति होनी चाहिए वो होती है, तो प्रसन्‍नता की प्राप्ति हो सकती है। शास्त्रकार ने तो कहा है कि अपने आपको विशेष प्रसन्‍न करो। प्रसन्‍न के दो अर्थ हो सकते हैंपहला जैसे खुश-हर्षित रहना। दूसरा अर्थ हैस्वच्छ निर्मल। अच्छा स्वच्छ होना प्रसन्‍न होना है। जैसे आकाश स्वच्छ है। चित्त निर्मल, दु:ख रहित रहे, शांति रहे, समता रहे। विशेष प्रसन्‍नता पाने के लिए शास्त्र में एक उपाय बताया गया हैसमता की साधना करो, समता में रहो। प्रेक्षा, अनुपे्रक्षा, अभ्यास करो। समता धर्म है। साधु को तो समतावान होना चाहिए। आगम में कहा गया है कि ॠषि होते हैं, वे महान प्रसाद वाले हैं। प्रसाद-प्रसन्‍नता एक ही है। वे द्वंद्वात्मक स्थितियों में सम रहते हैं। चाहे लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, निंदा-प्रशंसा, मान-सम्मान हो या अपमान हो ऐसी स्थितियाँ द्वंद्वात्मक स्थितियों में आदमी समता रखने का प्रयास करे। शांति-समता रखना प्रसन्‍नता का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र बन सकता है। यह एक प्रसंग से समझाया कि गाली देने से या गंदा खाने-पीने से मुँह खराब हो सकता है। मीठा बोलने से सुख मिलता है। न बुरा देखो, न बुरा बोलो, न बुरा कहो। थोड़ा ध्यान दे लें तो हमारी भाषा मधुर हो सकती है। वाणी में अमृत होता है, तो विष भी हो सकता है। पर जहर का उपयोग क्यों करें। प्रोटोकोल के जो लायक है, उनका ध्यान रखें। कोई कुछ भी बोले हमें गुस्सा नहीं करना चाहिए। किसी को दु:ख देना अच्छी बात नहीं है। किसी को चित्त-समाधि देना अच्छी बात है।
क्षमा देना अच्छी बात है। शक्‍ति है, तो अच्छे काम में लगाएँ। शक्‍ति का उपयोग का विवेक हो। विद्या दुर्जन के पास है, वह विद्या से विवाद कर लेता है। सज्जन के पास विद्या है तो वह विद्या से ज्ञान का दान करेगा। दुर्जन धन का अहंकार करता है। सज्जन धन का उपयोग दान में करता है। दुर्जन के पास शक्‍ति है, तो दूसरों को प्रताड़ित करेगा। सज्जन के पास शक्‍ति है, तो वह दूसरों की सेवा करता है, रक्षा करता है। दुर्जन और सज्जन में कितना बड़ा अंतर होता है। गिरे हुए आदमी पर हँसो मत, उसे सहारा देकर उठाने का प्रयास करो। गृहस्थ जीवन में भी आदमी को दुर्जनता से बचना चाहिए। दुरात्मा न बनें, सदात्मा, महात्मा बनने का प्रयास करें। प्रयास हो कि हम परमात्मा भी बनें। हम अहिंसा यात्रा कर रहे हैं। चतुर्मास भीलवाड़ा में किया आज संपन्‍न हो गया। हमने वहाँ से प्रस्थान कर दिया, यात्रा शुरू हो गई है। अहिंसा यात्रा के तीन उद्देश्यों को समझाया। सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्‍ति है, तो गृहस्थ आदमी सज्जनता में है। स्थानीय लोगों को अहिंसा यात्रा के संकल्प स्वीकार करवाए। स्थानीय जैन समाज में भी धार्मिकता की भावना बनी रहे। स्थानीय सरपंच भगवान गुर्जर ने पूज्यप्रवर का अपने गाँव में स्वागत किया। जैन समाज की ओर से सुरेश सुराना ने पूज्यप्रवर की अभिवंदना की। कुलदीप चिंडालिया, विमला जायसवाल, प्रताप चंडालिया, राघव सोमानी ने अपनी भावना अभिव्यक्‍त की। मूलचंद नाहर ने भी अपनी भावना श्रीचरणों में अर्ज की।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।