चातुर्मास में भीलवाड़ा की धरा बनी तपोभूमि - आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

चातुर्मास में भीलवाड़ा की धरा बनी तपोभूमि - आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 18 नवंबर, 2021
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी के सामने वर्तमान जीवन है और सिद्धांत कहता है कि इस जीवन के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहने वाला है। संसारी अवस्था में मृत्यु के बाद फिर जीवन भी होता है। जन्म और मृत्यु एक ऐसा युगल है कि जन्म है, तो मृत्यु अवश्यंभावी है। आदमी को अपने वर्तमान जन्म के हित के लिए और आत्मा के लिए बहुश्रुत की पर्युपासना करनी चाहिए। इहलोक और परलोक हित हो सके, सुगति हो सके। बहुश्रुत से प्रश्‍न करना चाहिए और अर्थ का विनिश्‍चय करना चाहिए। जिज्ञासा करनी चाहिए। योग्य व्यक्‍ति से प्रश्‍न करना चाहिए, जहाँ लाभ हो सके।
बहुश्रुत से आशा की जा सकती है कि उत्तर मिल सकता है। ज्ञान एक ऐसा है, जिसमें तारतम्य भी होता है। ज्ञानी, संयमी और साधनाशील से पूछना चाहिए। जो पूछता है, उत्तर को सुनता है, फिर उसको धारण कर लेता है, यह जिस जिज्ञासु विद्यार्थी का क्रम होता है, उसकी बुद्धि-ज्ञान बढ़ता है। जैसे सूर्य से कमलिनी विकसित हो जाती है। चतुर्मास का समय एक ज्ञानाराधना का अनुकूल समय हो सकता है। आगम संपादन का अच्छा कार्य हो सकता है। कार्य करने में बड़ी आसानी हो सकती है। भीलवाड़ा में चतुर्मास संपन्‍नता की ओर है। कितने साधु-साध्वियाँ यहाँ रहे हैं। यह तपोभूमि बन गई। कितने मकानों में चतुर्मास हुआ है। कितनी तपस्याएँ हुई हैं। ज्ञानाराधना भी कितनी हुई है। श्रावक-श्राविकाओं को भी लाभ मिला है। मिगसरवद एकम को सभी चारित्रात्माओं के विहार हो जाएँ। मुहूर्त की चिंता नहीं। एकम तो हमारे लिए वरदान है। विहार तो हमारे लिए अच्छा है। ‘पानी तो बहता भला, पडया गंदीला होय। साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय।’ कितने साधु-साध्वियाँ, समणियाँ एवं मुमुक्षु बहने यहाँ रहीं। भीलवाड़ा का चतुर्मास अनेक द‍ृष्टियों से अच्छा रहा है। कुछ विशिष्ट भी रहा है, ऐसा लग रहा है। यात्रा में भी अच्छा उपकार किया जा सकता है। नया-नया जनसंपर्क होता है। कुमार श्रमण केशी ने राजा परदेशी जैसे को प्रतिबोधित कर दिया। हमारे साधु-साध्वियाँ कुमार श्रमण केशी जैसे हो। जो ऐसे समझा सके। प्रतिभा का अच्छा उपयोग हो। ज्ञान के लिए स्वाध्याय होता रहे तो ज्ञान में नवीनता आ सकती है। ज्ञान में नवोन्मेष आते रहें। चतुर्मास की संपन्‍नता निकट आ रही है। हमारे ज्ञान-दर्शन की पुष्टि, चारित्र का विकास करणीय विकास अच्छा होता रहे। श्रावक-श्राविकाओं में भी व गृहस्थों में भी विकास होता रहे, यह काम्य है। पूज्यप्रवर ने विहार संबंधी प्रेरणा प्रदान करवाई। हाजरी का वाचन किया। शैक्ष साधु-साध्वियों को ज्ञान के विकास की प्रेरणा प्रदान करवाई। नई चीज मिले वो नोट करते जाएँ। साध्वीप्रमुखाश्री जी का विहार हमारे साथ ही है। न्यारा में विचरण कर जयपुर जल्दी पहुँचें। वैक्सीन एवं दवाई संबंधी का प्रायश्‍चित दिखाया।  साधु-साध्वियों ने लेख पत्र का वाचन किया। बहिर्विहारी साधुओं के लिए मंगलकामना प्रेषित करवाई। उदयपुर राजकुमार लक्षराजसिंह मेवाड़ को प्रेरणा प्रदान करवाई। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने मंगलभावना समारोह पर कहा कि लगभग चार महीने पूर्व पूज्यप्रवर का चतुर्मास की द‍ृष्टि पदार्पण हुआ। प्राय: मेवाड़ के सभी लोगों में बड़ा उत्साह था। उमंग और आकर्षण था। अनेक क्षेत्रों के लोगों को पूज्यप्रवर का प्रवचन सुनने का लाभ मिला। तेरापंथ के आचार्यों के सामने कितने काम आते हैं, उन सबका संपादन करते हैं। एक प्रसंग से समझाया कि साधुओं की संगत करने से चंदन जैसी सुगंध की तरह जीवन सुवासित होता है।
गुरुदेव की देशना तो गंगा की तरह अमृत की धारा है, संजीवनी है। इससे लोगों के जीवन में रूपांतरण हुआ है और होता रहेगा। गुरुदेव ने इस चतुर्मास में कितने साधु-साध्वियों को ज्ञान प्रदान करवाया। कितनों को उपासना का अवसर मिला। पूज्यप्रवर ने सभी को ऊर्जा प्रदान की है। यहाँ के कार्यकर्ता-श्रावकों ने भी अच्छी सेवा की है। अन्य समाज के हजारों लोगों को भी पूज्यप्रवर के प्रवचन श्रवण का लाभ मिला है। मुख्य नियोजिका जी ने, साध्वीवर्या जी एवं मुख्य मुनिप्रवर ने भी अपनी भावना अभिव्यक्‍त की।
राहुल कुमार जैन ने आत्म संतुष्ट के गुण The Vertual of self satisfied life पुस्तक का लोकार्पण पूज्यप्रवर के चरणों में किया। उन्होंने इस संदर्भ में अपनी भावना रखी। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन इस संदर्भ में फरमाया। महाराज कुमार लक्षराजसिंह, सुशील आच्छा, गणपत पितलिया, प्रकाश कर्णावट, दिनेश खांटेड़, चमणमल सुराणा, अभिषेक कोठारी, गुलाबचंद बोथरा ने अपनी मंगलभावना अभिव्यक्‍त की। तेरापंथ महिला मंडल ने गीत की प्रस्तुति दी। महाराज कुमार लक्षराज सिंह मेवाड़ पूज्यप्रवर के दर्शनार्थ पधारे, उन्होंने अपनी भावना रखी। लिगांयतस्वामी श्रीदयानंदजी ने लिखित भावना पूज्यप्रवर को निवेदन की।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।