संबोधि

स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह

(20) अहिंसैव विहितोस्ति, धर्म: संयमिनो ध्रुवम्।
निषेध: सर्वहिंसाया, द्विविधा वृत्तिरस्य यत्॥

संयमी पुरुष के लिए अहिंसा धर्म ही विहित है और सब प्रकार की हिंसा वर्जित है। संयमी की वृत्ति दो प्रकार की होती हैअहिंसा का आचरण, यह विधेयात्मक वृत्ति है। हिंसा का वर्जन, यह निषेधात्मक वृत्ति है।

संयमी व्यक्‍ति की अहिंसा विधेयात्मक और निषेधात्मकदोनों है। विधेयात्मक अहिंसा को समिति कहते हैं और निषेधात्मक अहिंसा को गुप्ति। अशुभ और शुभ योग के निरोध का नाम गुप्ति है और शुभ योग में प्रवृत्त होने का नाम समिति है। गुप्ति तीन हैंमनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति। मुनि क्रमश: मन के अप्रशस्त और प्रशस्त योग का विरोध करे।
विधेयात्मक अहिंसा के पाँच रूप हैं
(1) ईर्या समितिदेखकर चलना, विधिपूर्वक चलना।
(2) भाषा समितिविचारपूर्वक संभाषण करना।
(3) एषणा समितिभोजन-पानी की गवेषणा में सतर्कता रखना।
(4) आदान-निक्षेप समितिवस्तु के लेने और रखने में सावधानी बरतना।
(5) उत्सर्ग समितिउत्सर्ग करने में सावधानी बरतना।
समिति में अशुभ का निरोध और शुभ में प्रवर्तन है। गुप्ति में शुभ का भी निरोध होता है। आत्मा का पूर्ण अभ्युदय निरोध से होता है।

(21) अहिंसाया आचरणे, विधान×च यथास्थिति:।
संकल्पजा-निषेधश्‍च, श्रावकाय कृतो मया॥

श्रावक के लिए मैंने यथाशक्‍ति अहिंसा के आचरण का विधान और संकल्पजा-हिंसा का निषेध किया है।

(क्रमश:)