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स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह

(19) व्यर्थं कुर्वीत नारम्भं, श्राद्धो नाक्रामको भवेत्।
हिंसां संकल्पजां नूनं, वर्जयेद् धर्ममर्मवित्॥

धर्म के मर्म को जानने वाला श्रावक अनावश्यक आरंभजा हिंसा न करे, आक्रमणकारी न बने और संकल्पजा हिंसा का अवश्य वर्जन करे।
तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं
(1) गृहस्थ, (2) गृहस्थ-साधक (उपासक श्रावक), (3) मुनि। यह भेद बाह्य आकृति या कार्य पर आधारित नहीं है। यह अंतर्वृत्ति पर आधारित है। मुनि उसे कहते हैंजो अपने को जगाने, जानने में पूर्णतया समर्पित हो चुका है। आत्महित ही जिसका एकमात्र ध्येय है, जो अहर्निश उसी में निरत रहता है, वह मुनि होता है।
गृहस्थ साधक वह होता हैजो गृहस्थ के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी धर्म की दिशा में सतत गतिशील रहता है, धर्म को अपने सामने रखता है। संत सहजो ने कहा है
जागृत में सुमिरन करो, सोवत में लौ लाय।
सहजो एक रस ही रहे, तार टूट ना जाय॥
गृहस्थ-उपासक और मुनिदोनों का लक्ष्य एक है इसलिए सतत स्मृति दोनों के लिए अपेक्षित है। अंतर केवल कर्तव्य का होता है। देखना सिर्फ इतना ही है कि कार्य-व्यस्तता में स्मृति का तार कितना अविच्छिन्‍न रहता है। जिस गृह-साधक की स्मृति इतनी हो जाती है वह एक क्षण भी स्वयं से दूर नहीं होता। उसके कार्य एक स्तर पर चलते हैं और वह जीता किसी और स्तर पर है। जीवन जीने की यह परम कला है। इससे ही उसकी समस्त प्रवृत्तियाँ सत्य की ओर उन्मुक्‍त हो जाती हैं। उसका समग्र व्यवहार इसकी परिक्रमा किए चलता है। विधि-निषेध का केंद्र धर्म होता है। वह उसी के निर्णय को महत्त्व देता है। उसके आक्रांत होने या हिंसक होने का प्रश्‍न ही खड़ा नहीं होता। गृहस्थ दोनों से विपरीत है। वह जीवन जीता है। किंतु जीवन का वास्तविक ध्येय उसके सामने नहीं रहता। लक्ष्य के आधार पर ही जीवन की वृत्ति का पहिया घूमता है। यदि ध्येय स्पष्ट और शुद्ध होता है तो क्रिया को भी उसका अनुगमन करना होता है। शुद्ध-साध्य के लिए साधन-शुद्धि की बात गौण नहीं हो सकती। जीवन का लक्ष्य केवल बहिर्मुखी (भौतिक) होता है, तब वृत्तियाँ अंतर्मुखी कैसे हो सकेंगी? गृहस्थ बहिर्मुखी होता है, इसलिए वह आक्रमण करने से भी चूकता नहीं। दुनिया के युद्धों के इतिहास के पीछे यही मनोवृत्ति काम कर रही है। पाँच हजार वर्षों के इतिहास में पंद्रह सौ बड़े युद्ध क्या बहिर्मुखता के द्योतक नहीं हैं? यह तो विश्‍व की स्थिति का दर्शन है। जीवन-निर्वाह के निरंतर चलने वाले कलह-झगड़े, वे क्या हैं? क्या उनके पीछे कोई वास्तविक उद्देश्य होता है। व्यर्थ के झंझटों में मनुष्य व्यर्थ उलझता है और दूसरों को भी उलझाता है। यह मानवीय स्वभाव की दुर्बलता है। सत्य, अहिंसा, नैतिकता आदि उसके लिए सिर्फ शब्द होते हैं। संकल्पजा हिंसा से भी यदि मनुष्य निरत हो सके तो सुख की सृष्टि संभव हो सकती है।
(क्रमश:)