साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(31)

जन्मोत्सव आया है लेकर नई बहारें
जीओ वर्ष हजार आर्य! गण के उजियारे॥

आज धरा खुशहाल और आकाश प्रफुल्लित
दशों दिशाएँ गीत गा रहीं हो रोमांचित
मौन तोड़कर अधर हमारे मुखर हो रहे
मधुर कल्पना की धारा में प्राण खो रहे
अंधेरी राहों में अब किरणें संचारें॥

सत्य-शोध के लिए हलाहल तुम पी लेते
तूफानी लहरों पर निर्भर नौका खेते
हम भी पथ की बाधाओं से नहीं डरेंगे
धैर्य और साहस से संकट-सिंधु तरेंगे
दो आशीर्वर जीवन-रण में कभी न हारें॥

बोल तुम्हारे भर देते प्राणों में स्पंदन
चरण परस से बन जाती है माटी चंदन
तुम्हें देखकर उजड़ी हर वनिका खिल जाती
जीवन के दीवट पर जलती स्नेहिल बाती
हो जाए चैतन्य-जागरण तुम्हें निहारें॥

श्रमण और आचार्य बने अब अर्हत बनकर
करो मार्गदर्शन इस युग का स्वर्णिम दिनकर!
उम्र हमारी सारी तुम पर आज समर्पित
तुमको पाकर रोम-रोम है सबका प्रमुदित
ज्योतिर्मय झरने प्रभुवर के पाँव पखारें॥

(32)

वंदना नव सृजन की मैं आज करना चाहती हूँ
जिंदगी के सफरनामे में उतरना चाहती हूँ॥

मांगलिक यह शुभ समय सौभाग्य से हमको मिला है
मनुज मन की बात क्या यह प्रकृति का कण-कण खिला है
गीत के ध्रुवपद सरीखा उभर जो व्यक्‍तित्व आए
रात दीवाली दशहरा बन दिवस उसको मनाए
सिद्धरस का स्पर्श पाकर मैं निखरना चाहती हूँ॥

सूर्य की पहली किरण जब आँख अपनी खोलती है
तिमिर-लहरी सहमती-सी झुरमुटों में डोलती है
रूप दिनमणि का समुज्ज्वल नील नभ में जब उतरता
नयन-दर्पण यदि अनाविल बिम्ब दुनिया का उतरता
उस अमल आलोक से मैं तिमिर हरना चाहती हूँ॥

भाल पर जिसके डिठौना आत्मबल पुरुषार्थ का है
प्राण में संगीत कौशल समर में नित पार्थ-सा है
नियति क्या टेढ़ी नजर से कभी उसको देख पाए?
जो मसीहा मनुजता का देव उसके गीत गाए
देख उसको आपदा का सिंधु तरना चाहती हूँ॥

जो नहीं विपरीत स्थितियों में कभी अभिभूत होता
वर्ष क्या दिन और पल भी जो कभी ना व्यर्थ खोता
क्रांत चिंतन शांत जीवन भ्रांतियों का तोड़ घेरा
भेद तम की व्यूह-रचना ला रहा नूतन सवेरा
प्राणधारा में वही कर्तृत्व भरना चाहती हूँ॥
(क्रमश:)