आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा

(क्रमश:)
ध्यान की उपसंपदा का तीसरा बिंदु हैंसंयम। कोई भी साधक अध्यात्म के क्षेत्र में पदन्यास तभी कर सकता है, जब उसकी यात्रा का प्रारंभ संयम से हो। संयम मन का होता है, वाणी का होता है, इंद्रिय का होता है और शरीर का होता है। यह संयम जहाँ सध जाता है, वहाँ व्यक्‍ति में जागरूकता आ जाती है। आंतरिक जागरूकता का विकास जितना अधिक होता है, सम्यक्त्व भी उतना ही अधिक पुष्ट होता है। सम्यक्त्व देहरी का दीप है। वह दोनों ओर अपना प्रकाश फैलाता है। उससे सही मार्ग भी मिलता है और संयम भी सधता है। इस द‍ृष्टि से प्रेक्षा की उपसंपदा में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उपसंपदा के जो तीन आदेश हैं, उनमें प्रथम आदेश अध्यात्म की दिशा में पदन्यास का प्रतीक है। दूसरा आदेश अंतर जगत में संचरण की प्रेरणा देता है और तीसरा आदेश जागरूकता के साथ आत्मरमण का सूचक है। आदेशत्रयी रूप यह उपसंपदा प्रेक्षा-साधक के लिए ओज आहार का काम करती है। उसे अपने जीवन में इस आहार से बराबर पोषण मिलता रहता है।
प्रश्‍न : लक्ष्य का निर्धारण होने के बाद वहाँ तक पहुँचने के लिए सही मार्ग की खोज आवश्यक है। वह सही मार्ग सम्यक्त्व की उपलब्धि होने से मिलता है अथवा सम्यक्त्व प्राप्त होने से पहले भी उपलब्ध हो सकता है?
उत्तर : मार्ग दो प्र्रकार का होता हैलक्ष्यानुबद्ध और लक्ष्य से अप्रतिबद्ध। अप्रतिबद्ध मार्ग कितना ही अच्छा हो, उससे लक्ष्य तक गति नहीं हो सकती। एक व्यक्‍ति का लक्ष्य हैअर्थार्जन। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह सामायिक स्वीकार कर बैठ जाए, यह मार्ग लक्ष्यानुबद्ध नहीं है। सामायिक बहुत अच्छी साधना है। जीवन को समरस बनाए रखने के लिए सामायिक बहुत आवश्यक है। किंतु उससे अर्थार्जन का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसी प्रकार जिस व्यक्‍ति का लक्ष्य आत्मानुभव या चित्त की निर्मलता है, वह बाहर कहीं भी उलझ नहीं सकता। आत्मानुभव करने के लिए समुद्यत साधक आदि अर्थार्जन में जुटा रहता है, हिंसा आदि असत् प्रवृत्तियों में उलझा रहता है, काम-सेवन में तन्मय रहता है और मानता है कि मैं लक्ष्य के नजदीक पहुँच रहा हूँ, यह द‍ृष्टिकोण का मिथ्यात्व है। तथ्य की नियामकता सम्यक् द‍ृष्टिकोण से ही हो सकती है। जब द‍ृष्टिकोण स्पष्ट और सम्यक् नहीं होता है, तब मार्ग के निर्धारण में भी कठिनाई खड़ी हो जाती है। और उलझनें बढ़ जाती हैं। उलझन की स्थिति में हर व्यक्‍ति अपने से दूसरे व्यक्‍ति को गलत प्रमाणित करने का प्रयास करता रहता है। इसी द‍ृष्टि से मार्ग की खोज के साथ-साथ सम्यक्त्व का होना भी जरूरी है। सम्यक्त्व से भावित चित्त ही उलझन को समाप्त कर सकता है। इस उलझन को दूर करने के लिए अनेकांत को आधार बना लेना चाहिए। एक विद्यार्थी स्कूल में अध्ययन करता है और दुकान में बैठकर धंधा करता है। दोनों विपरीत दिशागामी धाराएँ हैं। फिर भी विद्यार्थी की क्रियाएँ गलत नहीं हैं। क्योंकि गलती तब होती है, जब दोनों दिशाओं को एक करने का प्रयास हो। अपने-अपने स्थान पर दोनों दिशाएँ सही हैं। लक्ष्यानुबद्ध दिशा में गति करने के लिए सम्यक्त्व की उपलब्धि सबसे अधिक आवश्यक है। सम्यक् द‍ृष्टि व्यक्‍ति अपने जीवन में अच्छा या बुरा जैसा करता है, उसे उसी परिवेश में जानता-समझता है। परिवर्तित परिवेश में कोई भी सच्चाई-सच्चाई नहीं रह सकती। प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा में मार्ग, सम्यक्त्व और संयमतीनों का बराबर मूल्य है। वैसे जिस बिंदु को प्राथमिकता देनी होती है, उस बिंदु को उभारना जरूरी हो ही जाता है, किंतु उसकी प्रधानता में भी अन्य बिंदु उपेक्षित या गौण नहीं होने चाहिए। अनेकांत द‍ृष्टि का प्रयोग ऐसे प्रसंगों पर ही अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। अनेकांत को नहीं समझने वाला व्यक्‍ति इस बात में उलझ सकता है कि साधना के क्षेत्र में मार्ग का मूल्य है तब सम्यक्त्व और संयम की क्या जरूरत है? अथवा सम्यक्त्व या संयम ही सब कुछ है तो मार्ग की खोज क्यों की जाए? यह उलझन जब तक बनी रहती है, साधना की दिशा में प्रशस्त नहीं हो सकती। इसलिए साधना में उपयोगी प्रत्येक बिंदु का सापेक्ष मूल्यांकन करना आवश्यक होता है।

उपसंपदा के सूत्र

मित भोजन मितभाषिता मैत्री का आधार।
प्रतिक्रिया से शून्य हो क्रिया स्वयं निर्भार॥
सदा साधना में रहे भावक्रिया उदार।
पाँचों ही ये सूत्र हैं सच्चे पहरेदार॥

प्रश्‍न : प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा स्वीकार करने के अनंतर ही ध्यान की साधना में सफलता प्राप्त हो जाती है या उसके लिए और भी कुछ करणीय होता है? साधक को साधना काल में किन-किन बातों का ध्यान रखना जरूरी है?
उत्तर : उपसंपदा स्वीकार कर लेने मात्र से किसी भी साधना में सफलता नहीं मिल सकती। किसी शिल्प या कला की साधना भी इतनी सरल नहीं है, फिर ध्यान की साधना इतनी सहज कैसे हो सकती है? ध्यान में तो भीतरी वृत्तियों का रूपांतरण होता है। रूपांतरण एक ही क्षण में घटित नहीं हो सकता। उसके लिए निश्‍चित समय और निश्‍चित प्रक्रिया से गुजरना होता है। प्रेक्षाध्यान का साधक ध्यान की उपसंपदा स्वीकार कर उसके अनुरूप साधना-सूत्रों का अनुसरण करता है। प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा के पाँच सूत्र हैंमिताहार, मितभाषण, मैत्री, प्रतिक्रिया शून्य क्रिया और भाव-क्रिया।
(क्रमश:)