एकाह्निक तुलसी-शतकम्

एकाह्निक तुलसी-शतकम्

मुनि सिद्धकुमार
(26) निर्मलं मादकं चैवासीदुभे भवतो वपु:।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपका शरीर निर्मलता एवं मादकता, दोनों लिए हुए था। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(27) शिष्येभ्य: कररूपी ते, छत्रं निश्‍चिन्तकारकम्।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपका कर रूपी छत्र शिष्यों के लिए निश्‍चिंतकारी था। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(28) विरोधिनोऽपि स×जाताश्‍चालनेन प्रभाविता:।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपके चाल से तो विरोधी भी प्रभावित हो जाते। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(29) अतिभव्यस्तवासीच्च, ललाटश्‍चतुरङ्गुल:।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपका चार अंगुल का ललाट अत्यंत ही भव्य था। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(30) देवा अपि स्म लोठन्ते, भवतश्‍चरणे शुभे।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपके पावन चरणों में देवता भी लोटते थे। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

तदा श्रीतुलसीं भजेत्
(31) अस्ति ग्रस्तं तनावेन, मन: क्षुब्धं यदा-यदा।
आकुलव्याकुलं चित्तं, तदा श्रीतुलसीं भजेत्॥
जब-जब मन तनाव से ग्रस्त हो, क्षुब्ध हो, चित्त आकुल-व्याकुल हो रहा हो, तब श्री तुलसी का स्मरण करो।

(32) उपद्रवा यदाऽऽक्रामन्तीत्युदयेन सर्वत:।
उपाय: कोऽपि नो पश्यन्, तदा श्रीतुलसीं भजेत्॥
जब कर्मोदय के कारण समस्या सभी ओर से आक्रमण करे और कोई उपाय न दिख रहा हो, तब श्री तुलसी का भजन करो।

(33) यदा मोहतमो व्याप्तं, वर्धमानाऽस्ति वेदना।
तदुपशमनायैव, तदा श्रीतुलसीं भजेत्॥
जब मोहरूपी अंधकार व्याप्त हो जाए और वेदना बढ़ती जाए तब उसके उपशमार्थ श्री तुलसी का स्मरण करो।

(34) मूर्च्छाऽवर्धत रागस्य, द्वेषदवाग्निरज्वलत्।
यदेत्थमस्ति कष्टं च, तदा श्रीतुलसीं भजेत्॥
राग की मूर्च्छा बढ़ जाए, द्वेष रूपी दावानल सुलग जाए, जब ऐसा कष्ट हो तब श्री तुलसी का भजन करो।

(35) ‘अहं सर्वश्‍च मे सर्वो’, यदा-यदा विचारितम्।
अहङ्कारविनाशाय, तदा श्रीतुलसीं भजेत्॥
जब ऐसा विचार आए कि मैं ही सब कुछ और सब कुछ मेरा तब इस अहंकार के विनाश के लिए श्री तुलसी का भजन करो।

(36) नि:श्रेयससुखक्षेमङ्करी श्रीतुलसीस्तुति:।
चमत्कारकरं नाम, ह्यत: श्रीतुलसीं भजेत्॥
परमाराध्य गुरुदेव श्री तुलसी की स्तुति मोक्ष-सुख दाता तथा कल्याणकारी है। तुलसी नाम ही अपने आपमें चमत्कारी है, अत: श्री तुलसी का भजन करो।

(37) औषधिर्नास्ति मूर्खस्य, भर्तृहरि: समुक्‍तवान्।
परन्तु तव पार्श्‍वेऽपि, तेषामपि निवारणम्॥
राजा भर्तृहरि ने कहा था कि मूर्ख की कोई औषधि नहीं, परंतु गुरुदेव! आपके पास तो उनका भी समाधान था।