उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य महाश्रमण

आचार्य पादलिप्त

(क्रमश:)
प्रबंध-कोष के अनुसार इस विस्मयकारक घटना को देखकर गणिका बोली‘मुने! आप मरकर भी हमारे मुख से स्तुति पाठ करवाते हैं।’ पादलिप्त ने कहा‘पंचम वेद का संगान मृत्यु के बाद ही होता है।’ आचार्य पादलिप्त के इस उत्तर से शोकपूरित वातावरण खिलखिला उठा। आचार्य पादलिप्त के पास मंत्रविद्याओं का अतिशय बल था। पारस पत्थर से लोहा सोना बन जाता है। आचार्य पादलिप्त के द्वारा मंत्रित प्रश्रवण आदि के स्पर्श से भी प्रस्तर के खंड स्वर्ण-रूप में परिवर्तित हो जाते थे। ‘पारस पुरुष’ विशेषण आचार्य पादलिप्त की इस क्षमता की अभिव्यक्‍ति के साथ उनकी अन्य अंतरंग क्षमताओं का द्योतक भी है। मंत्र-विद्या का प्रयोग कर पादलिप्तसूरि ने मुरुण्ड आदि राजाओं को धर्म प्रचार के कार्य में सहयोगी बनाया एवं आश्‍चर्यजनक कवित्व-शक्‍ति के द्वारा उन्होंने विद्वद्जनों ने आदर पाया था। आर्य पादलिप्त को दस वर्ष की अवस्था में नागहस्ती सूरि ने आचार्य पद पर नियुक्‍त किया था। अत: आर्य पादलिप्त के समय वी0नि0 की 7वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध (वि0 की तृतीय शताब्दी का पूर्वार्द्ध) सिद्ध होता है। प्रो0 लॉयमन ने आचार्य पादलिप्त का समय ईस्वी सन् दूसरी, तीसरी शताब्दी माना है। इस आधार पर भी आचार्य पादलिप्त वी0नि0 की 7वीं-8वीं (वि0की तृतीय) शताब्दी के विद्वान् सिद्ध होते हैं।

आचार्य वज्रस्वामी

अवन्ती देश के तुम्बवन नगर में धनगिरि नाम का एक सुसंपन्‍न गृहस्थ था। उसकी धर्मशीला पत्नी का नाम था सुनंदा। सुनंदा के गर्भवती होने पर धनगिरि ने उससे स्वीकृति लेकर आर्य सिंहगिरि से संयम स्वीकार कर लिया। सुनंदा के यिाासमय पुत्र हुआ। परिवार की स्त्रियाँ पुत्र-जन्म का उत्सव मनाते हुए कहने लगी, धनगिरि तो मुनि बन गया। यदि आज वह यहाँ होता तो कितना उल्लास होता नवजात शिशु के कान में ये बोल पड़ते ही उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। मन में सोचा, मेरे मुनि बनने में कहीं माता का प्रचुर मोह बाधक न बन जाए। यही सोचकर रोने लग गया। प्रतिसमय रोता ही रहता किसी भी प्रकार वह चुप होता ही नहीं। माता छह महीने में ही व्यथित हो उठी। संययोग की बात थी, आर्य सिंहगिरि विहार करते हुए वहाँ पधारे। मुनि धनगिरि और समित मुनि (जो कि सुनंदा के भाई थे) भिक्षार्थ जाने लगे तब गुरु ने कहाआज तुम्हें जो भी भिक्षा में मिले उसे ले आना। दोनों मुनि भिक्षार्थ सुनंदा के यहाँ ही गए। धनगिरि को देखकर सुनंदा ने तत्क्षण कहायह अपना बालक रोता ही रहता है। मैं तो अब पूरी-पूरी ऊब चुकी हूँ। ले जाइए आप अपने बच्चे को। मुनि गुरु-आज्ञा का स्मरण करते हुए लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए बोलेअभी तो तू दे रही है पर फिर कभी माँगने लग जाए तो? सुनंदा ने आर्य समित और पास खड़ी अपनी सखियों की साक्षी से प्रतिज्ञा करके पुत्र मुनि को सौंप दिया। मुनि धनगिरि उसे झोली में लेकर गुरु के पास आए। वह झोली आर्य सिंहगिरि को दी। सिंहगिरि के मुँह से निकलाआज यह इतना भार क्या लाया है? क्या वज्र है? बस तब से इदनका नाम वज्र पड़ गया। शय्यारत श्राविका ने उसका पालन किया। बाले का रोना बंद हो गया। जब वज्र तीन वर्ष के हो गए तब सुनंदा ने अपने पुत्र को पुन: लेना चाहा। राजसभा में निर्णय होना था। एक ओर माता और एक ओर मुनि बैठ गए। राजा का संकेत था स्वेच्छा से शिशु जिसके पास चला जाएगा बालक उसी का मान जाएगा। माता ने अनेक प्रकार के खिलौने, मिठाई आदि दिखाकर अपनी ओर बालक को बुलाना चाहा पर वज्र टस से मस न हुआ। मुनि धनगिरि ने रजोहरण उठाकर कहावत्स! संयम लेना चाहते हो तो अपनी कर्मरज झाड़ने के लिए इसे लो। बात पूरी नहीं हो पाई थी कि बालक मुनि की गोद में जा बैठा।
(क्रमश:)