साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(29)
स्नेह का अवदान तुम देते रहो तो
दीप जीवन का सदा जलता रहेगा
नीर से अभिषेक तुम करते रहो तो
वृक्ष जीवन का सदा फलता रहेगा।

कल्पना के पट निरंतर बुन रही हूँ
किंतु अब तक नहीं कुछ भी हाथ आया
लग रहा मेला सुरों का सामने ही
किंतु अब तक भी न कोई गीत गाया
सत्य का सन्धान तुम करते रहो तो
स्वप्न नयनों में नया पलता रहेगा।

चाह मंजिल तक पहुँचने की जगी है
मार्ग में मन किस प्रलोभन में फँसा है
शांति देता है मुझे वीरान जंगल
नगर चारों ओर फिर क्यों यह बसा है
भीतरी एकांत तुम देते रहो तो
भीड़ का उपसर्ग खुद टलता रहेगा।

बाँधने मन मोम के बंधन बहुत हैं
लोह की जंजीर लेकर क्या करूँगी
तीर का अनुबंध है पक्‍का अगर जो
मैं भुजाओं से समंदर को तरूँगी
पंथ में पाथेय तुम देते रहो तो
आपदा का हिमशिखर गलता रहेगा।

काव्य लिखना चाहती हूँ जिंदगी का
आदि तुम उसके विपुल विस्तार हो तुम
कर नहीं सकती अलग तुमको कहीं भी
मध्य की क्या बात उपसंहार हो तुम
तिमिर को आलोक तुम करते रहे तो
कारवां यह श्‍वास का चलता रहेगा॥

(30)
तुम उदार मन से सबको आलोक बाँटते
किंतु नहीं हो पाया अब तक परिचय मेरा
हुआ निशा से मिलन आज तक कभी सूर्य का
खोलो पलकें मेरी होगा स्वयं सवेरा॥

चपल विचारों के खग ये निर्बन्ध घूमते
नहीं नीड़ का आमंत्रण भी सुन पाते हैं
श्यामल मेघों की जब नभ में घटा उमड़ती
मोर-पपीहे गीत खुशी के तब गाते हैं
सिद्धश्री विकास-उत्सव की लिखी गई है
तोड़ गिराएँगे जग की जड़ता का घेरा॥

पीत पात सपनों के झर-झार मिले धूल में
सूख गई है मधुर कल्पनाओं की क्यारी
सिंचन दिया सुधा का तब अविरल धारा से
हुई उच्छ्वसित मन की बंजर धरती सारी
फलक जिंदगी का देखो कोरा कागज है
युग को मिला अलौकिक तुम-सा कुशल चितेरा॥

जल उठते हैं दीपक प्राणों के मंदिर में
लगता निकट तुम्हारे जब गीतों का मेला
स्वर-संधान बाँध देता है समां अनूठा
यह विराग-राग का शुभ संगम अलबेला
कर देती अभिभूत तुम्हारी सृजन-चेतना
लिखा क्रांति की स्याही से तुमने हर पैरा॥
(क्रमश:)