एकाह्निक तुलसी-शतकम्

एकाह्निक तुलसी-शतकम्

(क्रमश:)
(14) भुव्यवतरितुं शक्यं, कदाचित्तारमण्डलम्।
भवद्सर्वगुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कदाचित् तारे जमीन पर उतर सकते हैं, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(15) चुलुकमात्रयावेष्टुं, शक्योऽस्ति किन्तु सागर:।
भवद्सर्वगुणानां च, ह्यल्लेखनमसंभवम्॥
हो सकता है कभी चुल्लू में सागर समा जाए, परंतु आपके सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(16) विषं भुक्त्वाऽमरत्वस्य, संप्राप्तिरिति संभवा।
भवद्सर्वगुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
कदाचित् विष के भोग से अमरत्व की प्राप्ति संभव है, परंतु आपके सर्व गुणों का वर्णन असंभव है।

(17) मम शब्दा: ससीमाश्‍च, भवद्गुणा असीमका:।
अतो भवद्गुणानां तु, ह्युल्लेखनमसंभवम्॥
मेरे शब्द असीम हैं तथा आपके गुण असीम अत: सभी गुणों का वर्णन असंभव है।

(18) अहं तथापि वन्दिष्ये, ज्ञात्वाऽसीमगुणान् तव।
विद्वद्भि: कथितं यच्च, मूर्खो मौर्ख्यं करिष्यति॥
यह जानते हुए भी कि आपके गुणों का वर्णन समीचीन रूप से नहीं किया जा सकता, मैं आपकी स्तुति करूँगा, क्योंकि विद्वानों ने कहा है, कि मूर्ख तो मूर्खता ही करेगा।

(19-20) ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य, त्रायते महतो भयात्’।
एतद्धि सूत्रप्राचीनं, पठित्वा चिन्तितं मया॥
समर्पितं च धर्माय, यस्य सम्पूर्ण जीवनम्।
शोको नास्ति भयं नास्ति, तस्य सम्पूर्णजीवने॥
(युग्मम्)
स्वल्प धर्माचरण भी व्यक्‍ति को महान् विपत्ति से बच लेता हैयह प्राचीन सूत्र का पठन कर मैंने चिंतन किया कि जिसने धर्म के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया, उसके जीवन में तो भय और शोक का अस्तित्व ही नहीं।

शरीर-वर्णन
(21) तवालौकिकयोरक्ष्ण, आसीदवस्थिति: शने:।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
प्रभो! आपके अलौकिक आँखों में शनि का वास था। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(22) आसीत् विचित्रमस्तिष्को, विशिष्टशक्‍तिधारक:।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपका आश्‍चर्यकारी मस्तिष्क विशिष्ट प्रतिभा से युक्‍त था। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(23) भवद्स्कन्धौ धुरीणौ द्वा, अवहतां सुशासनम्।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपके धुरंधर कंधों ने इस विशाल भैक्षवशासन का वहन किया। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(24) भवद्प्रलम्बकर्णौ द्वौ, सुश्रावकस्य लक्षणम्।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपके प्रलंबन कान एक श्रेष्ठ श्रोता की निशानी थी। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?

(25) सदैवासीत् सुधावाण्यां, तृट् परिवर्तनस्य हि।
प्रकर्तुं केन शक्नोमि, तुलनामतुलस्य च॥
आपकी अमृतमयवाणी में सदा परिवर्तन की प्यास थी। मैं अतुलनीय की तुलना कैसे करूँ?