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स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह

(13) रागद्वेषविनिर्मुक्त्यै, विहिता देशना जिनै:।
अहिंसा स्यात्तयोर्मोक्षो, हिंसा तत्र प्रवर्तनम्॥

वीतराग ने राग और द्वेष से विमुक्‍त होने के लिए उपदेश दिया। राग और द्वेष से मुक्‍त होना अहिंसा है और उनमें प्रवृत्ति करना हिंसा है।
जहाँ राग-द्वेष विद्यमान हैं, वहाँ अहिंसा नहीं हो सकती। जो क्रियाएँ राग-द्वेष से प्रेरित हैं, वे अहिंसक नहीं हो सकतीं। जो क्रियाएँ इनसे मुक्‍त हैं, वे अहिंसा की परिधि में आ सकती हैं। सामान्य गृहस्थ के लिए राग-द्वेष से संपूर्ण मुक्‍त हो पाना संभव नहीं है, फिर भी वह अपने सामर्थ्य के अनुसार इनसे दूर रहता है, वह उसका अहिंसक भाव है। वीतराग व्यक्‍ति की प्रत्येक प्रवृत्ति अहिंसा की पोषक होती है और अवीतराग व्यक्‍ति की प्रवृत्ति में राग-द्वेष का मिश्रण रहता है। इसे स्थूल बुद्धि से समझ पाना कठिन है, किंतु सूक्ष्मद‍ृष्टि से देखने पर कहीं एक कोने में छिपे हुए राग-द्वेष देखे जा सकते हैं।
भगवान् का सारा प्रवचन राग-द्वेष की मुक्‍ति के लिए होता है। राग-द्वेष की मुक्‍ति हो जाने पर सारे दोष धुल जाते हैं। सब दोषों के ये दो उत्पादक तत्त्व हैं। सारे दोष इन्हीं की संतान हैं।

(14) आरम्भाच्च विरोधाच्च, संकल्पाज्जायते खलु।
तेन हिंसा त्रिधा प्रोक्‍ता, तत्त्वदर्शनकोविदै:॥

हिंसा करने के तीन हेतु हैंआरंभ, विरोध और संकल्प। अत: तत्त्वाज्ञानी पंडितों ने हिंसा के तीन भेद बतलाए हैं
आरंभजा हिंसाजीवनयावन हेतुक हिंसा।
विरोधजा हिंसाप्रतिरक्षात्मक हिंसा।
संकल्पजा हिंसाआक्रामक हिंसा।
भगवान् महावीर ने आत्मा का विकास अहिंसा के मूल में देखा। उनका समस्त कार्य-कलाप अहिंसा की परिक्रमा किए चलता था। इसलिए उनका उपदेश अहिंसापरक था। अहिंसा की आवाज एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त हो गई। वह सबके लिए थी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा‘जो धर्म में उठे हैं और जो नहीं उठे हैं उन सबको इस धर्म का उपदेश दो।’ फलस्वरूप सहों व्यक्‍ति पूर्ण अहिंसक (मुनि) बने।
गृहस्थ-जीवन में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है, इस प्रश्‍न के समाधान में भगवान् महावीर ने हिंसा के तीन भेद किए, जिनके स्वरूप का विवेचन अगले श्‍लोकों में स्पष्ट किया गया है। भगवान् ने तीन प्रकार की हिंसा का निरूपण करते हुए गृहस्थ को निरर्थक हिंसा और संकल्पजा हिंसा से दूर रहने की बात कही है, जो अत्यंत व्यवहार्य और सुखी जीवन की प्रेरणा देने
वाली हैं।

(15) कृषी रक्षा च वाणिज्यं, शिल्पं यद् यच्च वृत्तये।
प्रोक्‍ता साऽऽरम्भजा हिंसा, दुर्वार्या गृहमेधिना॥

कृषि, रक्षा, व्यापार, शिल्प और आजीविका के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे आरंभजा-हिंसा कहा जाता है। इस हिंसा से गृहस्थ बच नहीं पाता।
गृहस्थ अपने और अपने आश्रित व्यक्‍तियों के भरण-पोषण के लिए आजीविका करता है। वह कर्म से सर्वथा मुक्‍त नहीं हो सकता। जहाँ कर्म है वहाँ हिंसा है। कर्म ही आरंभ है। कर्म की दो धाराएँ हैंगर्ह्य और अगर्ह्य।
मांस, शराब, अंडे आदि का व्यापार गर्ह्य-निंद्य माना गया है। एक आत्म-द्रष्टा या धार्मिक वह नहीं कर सकता। खेती, रक्षा, शिल्प आदि वृत्तियाँ गर्ह्य नहीं हैं। गृहस्थ इनका अवलंबन लेता है। (क्रमश:)