साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(27)

जब-जब होकर तन्मय मैंने तुम्हें निहारा।
अनायास ही बजता साँसों का इकतारा॥

चरण टिकाए ज्यों ही इस धरती पर तुमने
हुई अंकुरित पाकर पावन परस तुम्हारा
अधर खोल जब तुमने पहला गीत सुनाया
बासंती उपवन में बदला पतझर सारा
निरुपम आभा देख तुम्हारी गगन मुदित है
उदित हो गया देखो कोई दिव्य सितारा
मानव-मन के सपनों की जो फसल खड़ी है
उसे मिल गया आज अचानक ही रखवारा
छलक रही है नयनों से कैसी रसधारा॥

अनाघ्रात फूलों की सौरभ से सुरक्षित तुम
अनबींधे मोती-से अनुपम आकर्षण हो
नए अनछुए किसलय हो जीवन की लय हो
अपना रूप देख पाऊँ ऐसे दर्पण हो
अब तक भी पी सका न जिसको भंवरा कोई
इतने पावन पारिजात हो मनभावन हो
हर उलझन के समाधान हो चिर नवीन हो
निर्बन्धित वातायन से आगत पुलकन हो
हो जाते सब रोमांचित पा मौन इशारा॥

कीर्ति कौमुदी देख तुम्हारी नभ-धरती पर
मन के अगम सिंधु में मचल रही हैं लहरें
बियाबान जीवन में भर मधुरिम कोलाहल
पैठ रहे तुम लोक चेतना में अति गहरे
देव! अमित वात्सल्य तुम्हारा खुद बतलाता
पलकों की छाया में कितनी करुणा पलती
पल-पल सफल प्रेरणा पाई आज वही तो
अंधेरी राहों में दीपशिखा बन जलती
नहीं दूसरा तुम-सा कोई सिरजनहारा॥

(28)

आज समय के सागर में यह कैसी हलचल।
मौसम बना सुहाना घुली पवन में परिमल॥

खिली भोर सूरज से पहले नभ मुसकाया
बिछा नया आलोक मिटाकर तम का साया
खड़ी फसल खेतों में पल-पल लहराती है
साँसों ने आस्था का अनुपम गीत सुनाया
नए सृजन की सौगातें उनको मिलती हैं
रहते जो विपरीत परिस्थितियों में अविचल॥

धूप सुनहरी वृक्षों पर चढ़ झाँक रही है
मनुज लोक की खुशहाली को आँक रही है
महक उठे जलजात पात सब मानस-सर के
रात सितारे निज चुनरी में टाँक रही है
वलय ज्योति का समा रहा मेरी पलकों में
मुदित कामना की निर्झरिणी बहती कल-कल॥

हर विकास के साथ सहज तूफाँ आते हैं
अधरों पर अंगारे फिर भी मुसकाते हैं
भावी के सुंदर सपनों में खोए रहते
महापुरुष वे मन की उलझन सुलझाते हैं
शब्दों का परिधान उन्हें कैसे पहनाएँ
खंडित करें चेतना को क्यों जो है अविकल॥

स्वर्ग बना दे धरती को वह कला सिखाते
हर मानव की पीड़ा शंकर बन पी जाते
पाहन स्वयं पिघल जाता है करुणा पाकर
पतितों के पावन! प्राणों को सुधा पिलाते
आज उजाले का करना अभिषेक तेज से
बन जाए अभिराम राम! जीवन का पल-पल॥
(क्रमश:)