जीवन मुक्‍त होने के परम लक्ष्य के साथ जीवन जीएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जीवन मुक्‍त होने के परम लक्ष्य के साथ जीवन जीएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 20 अक्टूबर, 2021
चंद्रमा के समान शीतलता प्रदान करने वाले आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देेशना प्रदान करते हुए फरमाया कि संसारी प्राणी के जीवन हो सकता है, सिद्धों के जीवन नहीं हो सकता। जीवन वह होता है, जो आयुष्य कर्म के योग से प्राप्त होता है और जिसे जीया जाता है। सिद्धों के आयुष्य कर्म नहीं होता है तो सिद्धों के जीवन भी नहीं होता है। जीवन आदमी जीता हैं जीवन जीने का परम लक्ष्य यह हो सकता है कि ऐसा जीवन जीऊँ कि जीवन-मुक्‍त बन जाऊँ। सिद्धत्व को प्राप्त हो जाऊँ। सिद्धत्व को पाने के लिए ऐसा जीवन जीना अपेक्षित है, जिसमें जीवन- मुक्‍तता की तैयारी हो, जीवन मुक्‍तता की साधना हो। मुक्‍ति और सिद्धि या मोक्ष का स्थान तो ऊपर है। जीवन में भी इतनी साधना हो जाए कि आदमी जीवन जीते हुए भी कुछ अंशों में मोक्ष का सा अनुभव कर ले। श्‍लोक में कहा गया है कि यही मोक्ष है, जो सुविदित है। जिसके विधान-आचरण बहुत उन्‍नत है। किसी तरह का घमंड नहीं और इंद्रिय-संयम को जिसने साध लिया। मानसिक, वाचिक और शारीरिक किसी तरह का विकास नहीं है। पर की आशा नहीं। पदार्थ की आकांक्षा-तृष्णा नहीं। ऐसे सुविदित लोग हैं, उनके लिए इसी जीवन में एक सीमा की मुक्‍ति उन्हें प्राप्त हो जाती है। एक श्‍लोक में कहा गया है कि अतीत की व्यर्थ चिंताओं में-स्मृतियों में नहीं जाता, भविष्य की अनावश्यक कल्पना नहीं और जो कुछ प्राप्त है, उसमें औदाशन्य-तटस्था-समता भाव। अतीत, वर्तमान और अनागत इन तीनों कालों के संदर्भ में जो मुक्‍त है, वह व्यक्‍ति जीवन-मुक्‍त होता है।
जीवन मुक्‍त हो जाना एक उच्च कोटि की साधना की स्थिति हो जाती है। आदमी साधना करता है, साधना करते-करते विकास हो सकता है। साधु को तो साधना करनी ही चाहिए। गार्हस्थ्य में भी आदमी कैसे आध्यात्मिक साधना को आगे बढ़ाएँ, यह गृहस्थों के लिए भी धातव्य विषय होता है। गृहस्थ जीवन में आदमी ईमानदारी रखे, धोखाधड़ी- छलकपट न हो।
आज आश्‍विन पूर्णिमा- शारदी-पूर्णिमा है। शरद्चंद्र सम श्‍वेत अर्हत् के लिए कहा गया है। अर्हत् आध्यात्मिक-पथ के नेता और विश्‍व विजेता होते हैं। आश्‍विनी पूर्णिमा का अच्छा समय है। शरद पूर्णिमा का वह चंद्रमा और चाँदनी जिसमें कोई
सूक्ष्म अक्षरों को पढ़ने का प्रयास कर सकता है, यह चक्षु-परीक्षण जैसा हो सकता है। आदमी भी चंद्रमा की तरह श्‍वेत और निर्मल बने। इसके लिए हमें जीवन में सरलता रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अहिंसा के पथ पर चले। हिंसा से जितना संभव हो सके विरत रहे। अहिंसा की भावना रखें। आदमी जीवन व्यवहारों में संयम रखें। ये दोनों हैं, तो शरद-चंद्र की सी निर्मलता में आगे बढ़ सकते हैं। साधुत्व के साथ साधना भी बढ़े। यह एक प्रसंग से समझाया कि साधु तो कषायों से मुक्‍त (मरे हुए) समान हो। हम अपने जीवन में सरलता, अहिंसा, ईमानदारी, संयम और कषाय को मारने वाले बनें तो हमारा जीवन अपने आपमें कृतपुण्य-धन्य हो सकता है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि साधक इंद्रियों, कषायों और योगों को प्रतिसंल्लीन बनाकर जागरूक जीवन जी सकता है। प्रतिसंल्लीनता का चौथा प्रकार हैविविक्‍तशैय्या यानी जहाँ न पुरुष, न स्त्री, न नपुंसक रहता है। विविक्‍तशैय्या में रहने से साधक अपने चारित्र की सुरक्षा कर सकता है। तप का 7वाँ प्रकार प्रायश्‍चित के बारे में समझाया। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में अमिता भानावत, आदित्य गोखरू ने गीत से अपनी भावना व्यक्‍त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।