तेरापंथ धर्मसंघ के विरलतम आचार्य थे श्रीमद्जयाचार्य : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

तेरापंथ धर्मसंघ के विरलतम आचार्य थे श्रीमद्जयाचार्य : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 19 अक्टूबर, 2021
आचार्य भिक्षु के परस्पर पट्टधर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पंचम जयाचार्य अधिशास्ता के जन्मदिवस पर फरमाया कि आचार्य भिक्षु के ज्ञानात्मक उत्तराधिकारी जयाचार्य थे। भिक्षु स्वामी के आगमिक तात्त्विक ज्ञान के सहजतया उत्तराधिकारी जयाचार्य थे। भिक्षु स्वामी के भाष्यकार श्रीमद्जयाचार्य थे। आज से 218 वर्ष पूर्व आज के दिन जयाचार्य ने इस धरती पर जन्म लिया था। वे संत पुरुष, आचार्य पुरुष थे। उनके ज्ञान का विधान विशिष्ट था। आगम ज्ञान के साथ उनका अपनी प्रतिभा, अतिश्रुत ज्ञान का क्षयोपशम था। उन्होंने कितने ग्रंथों का पद्यों की भाषा में प्ररूपण कर दिया। ऐसे व्यक्‍तित्वों का होना कहीं-कहीं विरलता लिए होता है।
छोटी-छोटी नवदीक्षित चारित्रात्माओं को प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि प्रयास करते-करते आगे बढ़ा जा सकता है। रोम एक दिन में नहीं बना था। सभी ज्ञान में, ध्यान में आगे बढ़े। अच्छे संस्कारों में विकास है। हमारे धर्मसंघ में प्रतिभा लग रही है। कितने साधु-साध्वियाँ, समणियाँ डिग्री युक्‍त हैं। डिग्री के बिना भी कईयों में अच्छा ज्ञान है। प्रतिभा का योग है, अवसर मिलता है, तो आदमी आगे बढ़ सकता है। जैसे बीज है, तो उसको अनुकूल सामग्री और सींचन मिलता रहे तो वह वट-वृक्ष बन सकता है। हमारे धर्मसंघ में तत्त्वज्ञान का भी अच्छा विकास हुआ है। तपस्या का भी अच्छा क्रम चल रहा है। विकास को अवकाश है और आगे बढ़ें।
जयाचार्य को मुनि हेमराज जी सिरियारी वालों का योग मिल गया। पर मूल अपनी क्षमता-प्रतिभा उनमें थी। उनसे हम प्रेरणा ले सकते हैं। लगभग 30 वर्षों तक हमारे धर्मसंघ के आचार्य पद से खुद सुशोभित हुए। मुनि मघवा जैसे सहयोगी मिल गए। मैं उनके जन्म दिवस पर उनको वंदन-अभिनंदन करता हूँ। उन्होंने धर्मसंघ को अनेक अवदान दिए हैं। ‘जय हो बल्लु सुत जग में, विश्रुत जय महाराज री’। गीत का सुमधुर संगान किया।
अप्रमत्त साधना के साधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने सुयगड़ो आगम की विवेचना करते हुए फरमाया कि आदमी जिस कुल में उत्पन्‍न होता है और जिनके साथ रहता है, उनके साथ वह ममत्व भी रखता है। साथ रहने वाले परस्पर एक-दूसरे में मूर्च्छा कर लेते हैं। यों मूर्च्छा करने वाला अज्ञानी आदमी नष्ट होता रहता है, यानी दु:ख मुक्‍त नहीं हो सकता है।
बंधन की बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है। राग-द्वेष बंधन है उनसे जुड़े हुए दो बंधन हैंहिंसा और परिग्रह। हिंसा और परिग्रह का परस्पर संबंध भी है। कारण व कार्य भाव भी देखा जा सकता है। परिग्रह के कारण से आदमी हिंसा में संप्रवृत्त हो जाता है। जहाँ साथ रहना होता है, वहाँ ममत्व भी हो सकता है और किसी रूप में हिंसा भी हो सकती है। कुछ ममत्व तो स्वार्थ पर आधारित होता है। स्वार्थ है तो प्रेम-मोह है। स्वार्थ पूर्ति नहीं तो वह स्नेह-प्रेम भी विच्छिन्‍न हो सकता है। ज्ञान चेतना और सेवा चेतना की लौ नव दीक्षितों में प्रज्ज्वलित होती रहे। विकास का प्रयास होता रहे। पुरुषार्थ पर आलस या निराशा का कुहासा न रहे। कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन होता रहे। चितारने में रात का समय अच्छा लगाया जा सकता है। मोह या स्वार्थ एक सीमा तक हो सकता है। मोह नहीं तो स्वार्थ नहीं। एक-दूसरे पर ममत्व तो होता है, पर स्वार्थों का संबंध है, तब तक ममत्व है। स्वार्थ सिद्ध होने बंध हो जाते हैं, फिर वो ममत्व भी अपने आप टूट सकता है। संसार की स्थितियाँ हैं। आदमी स्वार्थी होता है। आदमी अपनी साधना में, आत्म-कल्याण में ध्यान दें। हिंसा और परिग्रह से गृहस्थ भी मुक्‍त होने का प्रयास करे। आत्म कल्याण और कर्ममुक्‍ति की दिशा में आगे बढ़ने करें, काम्य है। आश्‍विन शुक्ला चतुर्दशीहाजरी वाचन  पूज्यप्रवर ने फरमाया कि आज आश्‍विन शुक्ला चतुर्दशी है, आज हमारे परम पूजनीय भिक्षु स्वामी की गीतिका का स्वाध्याय नवपदार्थ की ढाल का कर रहे थे। आश्रव जीव है, यह गीतिका है। उस समय मंगलवार था, आज भी मंगलवार है। पूज्यप्रवर ने हाजरी के अंतर्गत मर्यादावली का वाचन किया। ‘छूटे तो यह तन छूटे, शासन संबंध न छूटे, सबमें ऐसे संस्कार चाहिए। सत्य साकार चाहिए, उच्च आचार चाहिए, विमल व्यवहार चाहिए गुरुवर! हमको मर्यादा का आधार चाहिए।’ गीत के पद्य का सुमधुर संगान किया। संघ में रहने से विकास का अवकाश रहता है। अनुशासन में रहना भी एक साधना है। अंतिम श्‍वास संघ में ही लेंगे, यह भावना रहे। पूज्यप्रवर ने सम्यक्-दीक्षा ग्रहण करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि निरवद्य प्रवृत्ति हमारे कर्मों को हल्का करने में योगभूत बनती है। हमें अपने मन, वचन, काया को प्रतिसंल्लीन बनाना है। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।