जीवन के हर क्षण का सम्यक् एवं आध्यात्मिक उपयोग करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जीवन के हर क्षण का सम्यक् एवं आध्यात्मिक उपयोग करें : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 12 अक्टूबर, 2021
जीवन के निर्माता, शक्‍ति के महासागर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने नवरात्र से संबंध अनुष्ठान से पूर्व पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि आध्यात्मिक अनुष्ठान का क्रम चल रहा है। आगम का पाठ पुन: पुन: उच्चारण किया जा रहा है। आदमी उच्चारण जितना संभव हो सके अच्छा करे, शुद्ध करे। संस्कृत और प्राकृत भाषा का कईयों को ज्ञान हो सकता है, न भी हो सकता है। भाषा का अपना महत्त्व है। भाषा ज्ञान प्राप्ति एक माध्यम बनती है। चाहे भोजन हो या भजन हो, चाहे भाषण हो या भावना हो, इन सब में शुद्धता है, तो अपने आपमें अच्छी बात हो सकती है। भाषा तो एक बाह्य आवरण है, भावना का ज्यादा महत्त्व है। आवरण का भी थोड़ा महत्त्व है। भाषा शुद्ध होगी तो अच्छी लगेगी। मुख्य प्रवचन में परम पावन ने फरमाया कि ठाणं आगम में शास्त्रकार ने बताया है कि पुरुष के जीवन में 10-10 वर्ष की दस अवस्थाएँ होती हैं। आदमी का जीवन काल वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में यहाँ पर 100 वर्ष का पूर्ण आयुष्य हो सकता है। सौ पार करने वाले भी हो सकते हैं। हमारे धर्मसंघ में साध्वी बिदामाजी जीवन के ग्यारहवें दशक में चल रही हैं। धर्मसंघ में प्रथम चारित्रात्मा हुई है, जो सौ पार करके जीवन की दूसरी शताब्दी के प्रथम दशक में प्रवर्धमान है। शतायु वर्ष के संदर्भ में दस दशाएँ होती हैं। पहली अवस्था हैबाला। प्रथम दस वर्ष का बाल्यकाल का जीवनकाल। इसमें ज्यादा सुख-दु:ख की अनुभूति नहीं होती। निश्‍चिंत जीवन रहता है। शिशुत्व की अवस्था है। दूसरी अवस्था हैक्रीडा। 11वें से 20 वर्ष तक का समय खेलकूद का होता है। इंद्रियाँ शांत रहती हैं। तीसरी अवस्था 21वें से 30 वर्ष तक की हैमंदा। इसमें व्यक्‍ति को मंद कहा गया है। विशिष्ट बल का प्रदर्शन करने में कुछ मंद रहता है। भावनाएँ बढ़ जाती हैं। शरीर सुद‍ृढ़ हो जाता है। 
चौथी अवस्था 31 से 40वें वर्ष तक ही हैबला। इसमें आदमी में बल प्रदर्शन की क्षमता प्राप्त हो जाती है। पाँचवीं अवस्था हैप्रज्ञा (41 से 50 वर्ष तक)। इसमें आदमी को परिवार के बारे में सोचना होता है। छठी अवस्था (51 से 60 वर्ष) हायिनी। इसमें कुछ इंद्रिय-बल क्षीण हो जाता है। विरक्‍ति भी आ सकती है। सातवीं हैप्रपंचा (61 से 70 वर्ष) इसमें शरीर में थूक का बार-बार आना व कफ बढ़ जाते हैं, खाँसी भी आने लग जाती है। उतार की स्थिति है। आठवीं (71 से 80 वर्ष) हैप्राग्धारा। इसमें शरीर की चमड़ी में झूर्रियाँ पड़ जाती हैं। बुढ़ापा आने लग जाता है। नवमी हैभिन्मुखी। 81 से 90 की अवस्था, इसमें बुढ़ापा आक्रमण करने लग जाता है। जीवन के प्रति उदास हो जाता है। दसवीं हैशायिनी (91 से 100 वर्ष) इसमें आदमी सोया रहता है। जीवन का अंतिम दशक है। स्वर भी इतना बुलंद नहीं रहता। मन में दु:खी रहता है। ये दस अवस्थाएँ हैं। इन अवस्थाओं के संदर्भ में हम एक बोध ले सकते हैं कि जीवन की शैली का 10 वर्षों के बाद बदलाव-मोड़ लिया जा सकता है। अनुकूलता से तो चिंतन किया जा सकता है कि अब आगे कैसे जीना है। नवमें दशक में तो धर्म-ध्यान में ज्यादा समय लगाना चाहिए। वर्तमान में तो कई साधन हैं, धार्मिक साधन के।
चारित्रात्माएँ हैं, युवावस्था है, तो यात्राएँ करें, सेवा करें। जवानी जाने के बाद कई स्थितियाँ शरीर पर असर कर सकती हैं। जवानी की अवस्था जाने के बाद वापस आती नहीं है।
मुनि ध्रुव कुमार आज सुबह आया था। आज उसका जन्म दिवस तिथि और दिनांक के हिसाब से एक है। उन्‍नीस वर्ष का हो गया। जवानी में संयम की साधना अपनी अच्छी रहे। साथ में सेवा-स्वाध्याय, विकास होता रहे। सैनिक की तरह सेवा में हर समय तैयार रहे। आध्यात्मिक साधना अच्छी चले। ज्ञानार्जन का विकास हो। यों हमें दस अवस्थाओं का सम्यक् उपयोग करना चाहिए। वृद्धावस्था में जाप करें। ताकि चेतना की शुद्धता बनी रहे। बैठे-बैठे पढ़ाने-बताने के काम किए जा सकते हैं। जीवन की दसों अवस्थाओं का हमारा आध्यात्मिक उपयोग अच्छा होता रहे, ऐसा चारित्रात्माओं का रूझान रहे। मुख्य नियोजिका जी ने भिक्षाचरी के बारे में कहा कि भिक्षु के लिए भिक्षा चर्या करना बहुत कठिन है, पर महत्त्वपूर्ण भी है कि उसके बिना भिक्षु अपना जीवन नहीं चला सकता। भिक्षाचर्या भी निर्जरा का एक कारण है। रस परित्याग के बारे में बताया कि साधु या श्रावक आहार करते हुए भी स्वादिष्ट पदार्थों का त्याग कर तपस्या कर सकता है। साध्वीवर्या जी ने शांति संपन्‍नोऽम स्याम भावना का विवेचन करते हुए कहा कि हर व्यक्‍ति शांति चाहता है। शांति हमारे भीतर ही है। शांति के अभाव में सुख की कल्पना नहीं की जा सकती और सारी सामग्री नहीं है, पर शांति है, तो सुख ही सुख है। हमारी आत्मा में कषाय रूपी शूलें हैं, उनको बाहर निकालें तो शांति मिल सकती है। बुरी भावना, बुरे विचारों का त्याग करें। त्याग करने वाला परम शांति प्राप्त कर सकता है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि हमारे साथ अंतराय कर्म जुड़ा हुआ है, जो हमारी शक्‍ति को बाधित करने वाला होता है।