अनुत्तर गुणों के धनी होते हैं केवली : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अनुत्तर गुणों के धनी होते हैं केवली : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 11 अक्टूबर, 2021
तेजस्विता के धनी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में शास्त्रकार ने बताया है कि दस अनुत्तर चीजें केवली के होती हैं। जो केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, उसके अनुत्तरता आ जाती है। अनुत्तरता अर्थात् जिससे अधिक वह चीज किसी में नहीं होती है। शुद्धि की द‍ृष्टि से सिद्धों के आगे फिर कोई नहीं। अकर्म अवस्था की द‍ृष्टि से सिद्ध अनुत्तर है। केवलज्ञानी के पास दस अनुत्तर चीजें होती हैं। पहली बात हैअनुत्तर ज्ञान। केवलज्ञानी से ज्यादा ज्ञान किसी के भी पास नहीं होता। मनुष्य केवलज्ञानी से ज्यादा ज्ञान सिद्धों के पास भी नहीं होता। ज्ञानावरणीय कर्म उनका पूर्णतया क्षीण हो जाता है, तब उन्हें अनुत्तर-केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। दूसरा अनुत्तर हैअनुत्तर दर्शन। दर्शनावरणीय कर्म पूर्णतया क्षीण हो जाता है, तो वैसा होने से उन्हें संपूर्ण दर्शन-केवल दर्शन केवली को प्राप्त हो जाता है। केवली से ज्यादा दर्शन सिद्धों में भी नहीं होता। तीसरा हैअनुत्तर चारित्र। केवलज्ञानी के पास क्षायिक चारित्र होता है। उनमें यथाख्यात चारित्र होता है। पाँच चारित्र हैसामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्म-संपराय और यथाख्यात चारित्र। इन पाँचों में अनुत्तर चारित्र यथाख्यात चारित्र है। यथाख्यात में भी दो प्रकार हो जाते हैंऔपशमिक और क्षायिक यथाख्यात चारित्र। ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिक यथाख्यात चारित्र होता है। केवलज्ञानी में औपशमिक यथाख्यात चारित्र नहीं, क्षायिक यथाख्यात चारित्र होता है।
सिद्धों में तो चारित्र होता ही नहीं है। चारित्र तो साधन है, मार्ग है। साध्य या मंजिल मिलने के बाद साधन या मार्ग का महत्त्व नहीं रहता है। चारित्र एक पथ है, उपाय है, साधन है। साध्य प्राप्त होते ही साधन कृत्य-कृत्य हो जाता है। सिद्धों को तो मंजिल मिल चुकी है, पर चारित्र का गुण उनमें रहता है। वीतरागता उनमें बनी रहती है।
चौथा हैअनुत्तर तप। केवलज्ञानी आत्मा जो मनुष्य रूप में, साधु रूप में है, उनका तप भी अनुत्तर है। शुक्ल ध्यान जैसा ऊँचा ध्यान उनमें होता है। केवलज्ञानी का चारित्र-मोहनीय कर्म क्षीण हो चुका होता है। इसलिए उनमें दर्शन मोहनीय भी नहीं है, चारित्र-मोहनीय भी नहीं है। इसलिए उनका चारित्र भी क्षायिक और सम्यक्त्व भी क्षायिक होता है।
दर्शन शब्द के भी दो अर्थ हो जाते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने से केवल-दर्शन की प्राप्ति होती है और दर्शन-मोहनीय के क्षय से अनुत्तर दर्शन हो जाता है। पाँचवाँ हैअनुत्तर वीर्य। केवलज्ञानी के अंतराय कर्म क्षीण हो चुका होता है, जो वीर्य में बाधक होता है। इसलिए केवलज्ञानी का वीर्य भी अनुत्तर हो जाता है। शक्‍ति अनंत हो जाती है। ये पंचाचार के जो शब्द हैं, ये अनुत्तर है, केवलज्ञानी में। छठा बताया हैअनुत्तर क्षांति। क्षमाशीलता जो केवलज्ञानी में होती है, उनसे ज्यादा क्षमाशीलता किसी में नहीं होती है। उनकी क्षांति-सहिष्णुता भी अनुत्तर रहती है। सातवाँ अनुत्तर हैमुक्‍ति। निर्लोभता, अनासक्‍ति जो केवल ज्ञानी में होती है, वह अनुत्तर होती है। आठवाँ हैअनुत्तर आर्जव। निष्कपटता-ॠजुता केवलज्ञानी से ज्यादा किसी में नहीं होता। नौवाँ अनुत्तर हैमार्दव। अहंकार विलय ये भी केवलज्ञानी से ज्यादा किसी में नहीं होता। दसवाँ हैअनुत्तर लाघव। लघुता। उपकरणों का हल्कापन। केवलज्ञानी तो अनासक्‍त चेतना है। कोई ग्रंथि नहीं, कोई बाह्य संग्रह नहीं। उनसे ज्यादा हल्कापन और किसी में नहीं। हम ध्यान यह दें कि केवली के पास जितनी मात्रा में ये दस चीजें हैं, उतनी मात्रा में तो हर चीज हमारे पास नहीं है। पर उनसे ज्यादा कम भी हम न रहें। कोई मिथ्यात्वी बन गया, वो तो उनमें बहुत ज्यादा कम हो गया। मति-श्रुत ज्ञान भी इतना कमजोर है, तो उनसे बहुत ज्यादा कम हो गए। केवल दर्शन तो नहीं है, पर क्षायिक सम्यक्त्व आ गया तो दर्शन की तुलना में हम भी उनसे कम नहीं रहेंगे।
दस चीज में से एक ही चीज ऐसी है, जिसकी द‍ृष्टि से हम उनके बराबर छद्मस्थ लोग भी हो सकते हैं, वो हैं, अनुत्तर दर्शन और क्षायिक सम्यक्त्व होता है। आशा नहीं है कि क्षायिक चारित्र इस जन्म में मिल जाएगा, परंतु बहुत ज्यादा कमजोर चारित्र भी न रहे, बहुत ज्यादा दोषी चारित्र भी न रहे। अनुत्तर शुक्ल ध्यान है, उसकी भी आशा न करें पर जितनी एकाग्रता, भीतर में जाने की स्थिति बन जाए तो उनकी तरफ हम और आगे बढ़ जाएँ। वीर्य भी हमारा कुछ तो उत्तर हो, चेतना में शक्‍ति जाग जाए, अंतराय कर्म कमजोर पड़ जाए। वीतराग में जो अनुत्तर शांति है, वो तो संभव नहीं है, पर बहुत ज्यादा गुस्सैल भी न बनें। क्रोध हमारा कमजोर है, प्रतनु है, तो हमारी गतिमत्ता भी हो सकती है। ज्यादा इच्छा, लालसा, कामना भी न रखें। ॠजुता हमारी विकसित हो। कथनी-करनी में समानता हो। ज्यादा घमंड न रहे। ज्यादा संग्रह न करें। शरीर से भी भारी न हो जाएँ तो अनुत्तरता की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। हम केवली के ही भक्‍त हैं, शिष्य हैं तो अनुत्तर नहीं तो कुछ अंशों में हमारी गति हो जाए और कामना करें कि कभी हम भी इन अनुत्तर दस चीजों से युक्‍त बन जाएँ। अमृत देषणा प्रदान करवाने से पूर्व पुज्यप्रवर ने अनुष्ठान करवाया। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। रात्रिक अनुष्ठान भी नियमित करवा रहे हैं। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि दो शब्द हैंतपस्या और निर्जरा। दोनों के ही बारह प्रकार हैं, पर तप और निर्जरा एक नहीं है। तप कारण है, निर्जरा कार्य है। कारण में कार्य का जब हम उपचार कर देते हैं, तब हम तप को ही निर्जरा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। भिक्षाचरी भी तपस्या है, जो निर्जरा में निमित्त भूत बनती है। भिक्षाचरी का दूसरा नाम आता है, वह है, वृत्ति संक्षेप। अभिग्रह भी भिक्षाचरी का रूप है। मोहनलाल गोखरू ने अपनी भावना व्यक्‍त की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि पूज्यप्रवर की मंगल देषणा से हम शक्‍ति संपन्‍न बनें।