उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य पादलिप्त

सद्योत्तर प्रतिभा मुनि नागेंद्र के पास थी। गुरु द्वारा उच्चारित शब्द को अर्थान्तरित कर देने हेतु मुनि नागेंद्र ने नम्र होकर कहा‘आर्य! पलित्त में एक मात्रा बढ़ाकर उसको पालित्त बना देने का मुझे आप द्वारा प्रसाद प्राप्त हो। मात्रा-वृद्धि से पलित्तओ का संस्कृत रूप पादलिप्तक हो जाता है। पादलिप्तक से मुनि नागेंद्र का तात्पर्य था
‘गगनगमनोपायभूतां पादलेपविद्यां मे देहि येनाहं ‘पादलिप्तक’ इत्यभिधीये।’ मुझे गगन-गमन में उपायभूत पादलेप-विद्या का दान करें जिससे मैं पादलिप्तक कहलाऊँ। एक मात्रा की वृद्धि से पलित्त शब्द को विलक्षण अर्थप्रदायिनी मुनि नागेंद्र की प्रज्ञा पर गुरु प्रसन्‍न हुए। उन्होंने गगन-गामिनी विद्या से विभूषित ‘पादलिप्तो भव’ का शुभ आशीर्वाद शिष्य को दिया। तब से मुनि नागेंद्र का नाम पादलिप्त प्रसिद्ध हो गया।
दस वर्ष की अवस्था में गुरु ने उन्हें आचार्य पद पर नियुक्‍त किया। आचार्य पादलिप्त के शिशुकाल में ही गुरु ने उनकी माता से बालक के संघमुख्य होने का संकेत कर दिया था। गुरु की भविष्यवाणी सत्य प्रमाणित हुई।
धर्मसंघ की प्रभावना के लिए गुरु के आदेश से आर्य पादलिप्त एक बार मथुरा में गए। कुछ समय तक वहाँ रहने के बाद उनका मथुरा से पाटलीपुत्र में पदार्पण हुआ। पाटलीपुत्र का शासन उस समय मुरुण्ड के हाथ में था। बौद्धिक बल से आर्य पादलिप्त ने नरेश मुरुण्ड को अत्यधिक प्रभावित किया।
एक बार नरेश मुरुण्ड के मस्तिष्क में भयंकर पीड़ा उठी। छह महीने तक अनेक उपचार किए गए पर किसी प्रकार की चिकित्सा वेदना को उपशांत न कर सकी। राजपरिवार में निराशा छा गई। मंत्री ने राजा को परामर्श दिया‘नाथ! आपकी वेदना का सफल उपचार आर्य पादलिप्त के मंत्र प्रयोग से संभव है।’ भूप मुरुण्ड ने तत्काल आर्य पादलिप्त को बुला लाने का आदेश दिया। मंत्री आर्य पादलिप्त के पास पहुँचा और विनम्र स्वरों में बोला‘आर्य! राजा की मस्तिष्क-पीड़ा को दूर कर कीर्ति व धर्म का उपार्जन करें।’ मंत्री की प्रार्थना को स्वीकार कर पादलिप्त राजदरबार में गए।
प्रदेशिनी अंगुली को अपने जानु पर घुमाकर क्षण-भर में उन्होंने राजा के सिर-दर्द को उपशांत कर दिया। कला-कौशल से किसी भी व्यक्‍ति को अपना बनाया जा सकता है। पादलिप्त की मंत्र-विद्या से पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त कर महाराज मुरुण्ड उनके भक्‍त बन गए।
एक बार आर्य पादलिप्त पृथ्वी-प्रतिष्ठानपुर में आए। उस समय राजा शातवाहन का राज्य था। आर्य पादलिप्त के पदार्पण से पूर्व शातवाहन की सभा में चार कवि आए थे। चारों कवियों ने मिलकर राजा को एक श्‍लोक सुनाया था
जीर्णे भोजनमात्रेय:, कपिल: प्राणिनां दया।
वृहस्पतिरविश्‍वास:, पा×चाल: स्त्रीषु मार्दवम्।
आत्रेय ॠषि ने भूख लगने पर भोजन ग्रहण करने की बात कही है। कपिल ने प्राणियों पर दया भाव रखने का आदेश दिया है। बृहस्पति ने स्त्रियों पर विश्‍वास न रखने का परामर्श दिया है एवं पा×चाल ने महिलाओं के साथ मृदु व्यवहार करने की शिक्षा दी है।
प्रस्तुत पद्य को सुनकर शातवाहन की सभा के सभी सदस्यों ने चारों कवियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। भोगवती नामक गणिका सर्वथा मौन थी। उसने प्रशंसा में एक शब्द भी नहीं बोला। राजा ने गणिका से कहा‘तुम भी अपने विचार प्रकट करो।’ तब भोगवती बोलीगगनविद्या से संपन्‍न विद्या-सिद्ध विद्वान् पादलिप्त के सिवाय मैं किसी अन्य विद्वान् की स्तुति नहीं करती। आज उनके तुल्य संसार में कोई अन्य विद्वान् नहीं है। धरती पर सभी प्रकार के मनुष्य होते हैं। वहाँ आर्य पादलिप्त के गुणों से ईर्ष्या रखने वाला शंकर नामक व्यक्‍ति उपस्थित था। उसने कहा‘आर्य पादलिप्त मृत को भी पुनर्जीवित कर सकते हैं?’ प्रत्युत्तर में गणिका ने द‍ृढ़ स्वर से कहा‘ऐसा भी संभव है।’ भोगवती गणिका के द्वारा आर्य पादलिप्त की प्रशंसा सुनकर नरेश शातवाहन में उनसे मिलने की उत्सुकता बढ़ गई।
(क्रमश:)