धर्म को आत्मशुद्धि का साधन बनाएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

धर्म को आत्मशुद्धि का साधन बनाएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 8 अक्टूबर, 2021
तीर्थंकर के प्रतिनिधि, शक्‍ति के ोत आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा देते हुए फरमाया कि ठाणं आगम के दसवें अध्याय में धर्म के दस प्रकार बताए गए हैं। धर्म शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्‍त किया जा सकता है। धर्म का एक अर्थ हैआत्मा की शुद्धि का साधन धर्म होता है। जिससे आत्मा का कल्याण हो सके, मोक्ष प्राप्ति हो सके, दुर्गति से बचाव हो सके।
इस संदर्भ में संस्कृत के एक श्‍लोक में कहा गया है कि इस संसार में लोग दुर्गति में गतिमान हो जाते हैं, उनको रोक लेना, बचा लेना और उनको अच्छे स्थान में स्थापित कर देना, जो ये काम करता है, वो धर्म होता है। आत्मशुद्धि के साधन के रूप में धर्म का प्रयोग होता है, दूसरे रूप में धर्म कर्तव्य स्वरूप भी होता है। जहाँ आत्म-शुद्धि की बात है, वहाँ तो निरवद्यता होनी चाहिए। जहाँ कर्तव्य-व्यवस्था की बात है, वहाँ सावद्य-निरवद्य का प्रसंग नहीं। कर्तव्य क्या, व्यवस्था क्या, वही धर्म हो जाता है। तीसरा अर्थ है, धर्म कासृष्टि का एक घटक तत्त्व हैजीव और पुद्गल की गति में जो सहज रूप से उदासीन भाव से सहायक द्रव्य है, वह धर्म है। यों धर्म के तीन संदर्भ मेरे ध्यान में आ रहे हैं। प्रस्तुत सूत्र से भी इन तीनों संदर्भों को निचौड़ के रूप में निकाला जा सकता है।
इन दसों प्रकारों को तीन वर्गीकरण में विभाजित किया जा सकता है। पहला प्रकार हैग्राम धर्म। गाँव की व्यवस्था, आचार, परंपरा आदि। दूसरा हैनगर-धर्म। जैसे ग्राम की व्यवस्था, वैसे नगर की व्यवस्था। तीसरा हैराष्ट्रधर्म। राष्ट्र की व्यवस्था न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि की व्यवस्था। राष्ट्र की रक्षा की बात आती है।
चौथा हैपासंड-धर्म। श्रमण संप्रदायों का आचार। जैन धर्म, बौध धर्म, आजीवक परिव्राजक ये कई आम्नाय है, जो श्रमण संप्रदाय के अंतर्गत आता है। पाखंडों का अपना आचार होता है। पाँचवाँ कुल-धर्म, कुल की व्यवस्था। छठा हैगण-धर्म। गणराज्यों की व्यवस्था। सातवाँसंघ-धर्म। चतुर्विध धर्मसंघ की व्यवस्था। आठवाँ हैश्रुत-धर्म। ज्ञान की आराधना। नौवाँ हैचारित्र-धर्म। संयम की साधना।
दसवाँ बताया हैअस्तिकार्य-धर्म। धर्मास्तिकाय यह गति सहायक द्रव्य है। मैंने जो भी संदर्भ बताए हैं, उनमें पहला है, आत्म शुद्धि का धर्म उसमें श्रुत धर्म और चारित्र धर्म आ जाते हैं। फिर कुछ जुड़े हुए अंशों में पासंड धर्म और संघ-धर्म हो सकते हैं। दूसरा संदर्भ हैव्यवस्थाकर्तव्य। इसमें ये ग्राम-धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, पासंड धर्म, कुल धर्म, गण धर्म, संघ धर्म ये सातों आ जाते हैं।
जहाँ व्यवस्था की बात है, वहाँ ग्राम का मुखिया या सरकार की क्या बात है। यहाँ सावद्य-निरवद्य नहीं सुरक्षा कैसे रहे यह मुख्य है। ग्राम धर्म, नगर धर्म और राष्ट्र धर्म है, उनके अधिकारी लोग हैं, उनका धर्म है कि सज्जनों की रक्षा करें। जो दुर्जन लोग हैं, उन पर अनुशासन होना चाहिए। जो आश्रित लोग हैं, उनका भरण हो। यह व्यवस्थापक धर्म है। ठाणं आगम में हम देखें कि कितनी व्यापक द‍ृष्टि अपनाई गई है। जहाँ आत्म धर्म की बात बताई है, तो ग्राम, नगर, राष्ट्र धर्म की बात शास्त्रकार ने बता दी। जहाँ आत्मा की बात है, वो थोड़ा प्रासंगिक बन जाता है। जहाँ कुल के हित का प्रश्‍न है, वहाँ एक आदमी को गौण कर देना चाहिए। जहाँ ग्राम, नगर या राष्ट्र के हित की बात है, वहाँ परिवार, ग्राम या नगर के हित की बात को गौण कर दो। जहाँ आत्मा के हित की बात आ गई वहाँ सब कुछ छोड़कर आत्म-साधना में लग जाओ। आत्मा के लिए सब कुछ छोड़ दो।  आचार्य महाप्रज्ञ जी एवं राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के वार्तालाप को बताते हुए कहा कि एक तरफ राष्ट्र है, एक तरफ दल-पार्टियाँ हैं। आचार्य तुलसी कहा करते थे कि धर्म और संप्रदाय में धर्म मुख्य है, संप्रदाय गौण है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने कहा कि मैं इस बात को यों कहता हूँ कि राष्ट्र मुख्य है, दल उसके सामने गौण है। यह बात कहने से अब्दुल कलाम थोड़े झूम उठे और कहा कि आचार्यजी आपके पास जो भी राजनेता आएँ, उनको ये बात बताया करो। बड़े हित के सामने छोटी बात को गौण कर दो।
शास्त्रकार ने इन दस धर्मों में आत्मा की बात भी बता दी और दूसरी बात भी बता दी। सारे धर्म बता दिए हैं, इससे अनेक संदर्भों में धर्म के प्रयुक्‍त होने की बात हम पकड़ सकते हैं, ग्रहण कर सकते हैं। आत्मा का कल्याण करना है, तो संवर-निर्जरा साधन है। श्रुत धर्म और चारित्र-धर्म की आराधना करो तो मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
आत्मा से जुड़े लोग आत्मा के धर्म की साधना करें। व्यक्‍ति समाज में, संसार में अन्य धर्मों की अपनी-अपनी उपयोगिता हो सकती है। पूज्यप्रवर ने प्रवचन से पहले अनुष्ठान करवाया। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने ऊनोदरी तप की विवेचना करते हुए कहा कि तपस्वी को तप करता देखकर कई लोगों को प्रेरणा मिल जाती है। तपस्या करने से सहन करने की क्षमता आ जाती है, आत्मा का बल बढ़ता रहता है। आत्मिक बल से मनोबल बढ़ता है। जो व्यक्‍ति जीवन में सीमित द्रव्यों का उपयोग करते हैं, उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि इंद्रिय और मन के संयम से द्रव्य आत्मा की रक्षा करें।