आशंसा रहित साधना करने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आशंसा रहित साधना करने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 7 अक्टूबर, 2021
आध्यात्मिक शक्‍ति के ोत आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आज आश्‍विन नवरात्रा के प्रथम दिन आवाह्निक अनुष्ठान के अंतर्गत अनुष्ठान करवाया। अमृत प्रेरणा प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि ठाणं आगम में आशंसा प्रयोग के दस प्रकार बताए हैं। प्राणी में अनेक प्रकार की इच्छाएँ उभर सकती हैं। यहाँ आशंसाओं का, इच्छाओं का निरूपण किया गया है। पहला आशंसा का प्रयोग हैइच्छा करना, ईहलोक की आशंसा करना। हम मनुष्य हैं, मनुष्य जन्म के संदर्भ में इच्छा करना। कोई राजा, चक्रवर्ती, महान आदमी बन जाऊँ। दूसरा प्रकार हैपरलोक की आशंसा करना। जैसे देव गति संबंधी। मैं इंद्र या सामानिक देव बन जाऊँ। तीसरा प्रकार हैईहलोक-परलोक की आशंसा करना। दोनों लोकों की आशंसा करना। चौथी आशंसा हैजीवन की आशंसा। दीर्घ जीवन की आशंसा करना। लंबा आयुष्य हो, जीने की लालसा। पाँचवाँ हैमरने की आशंसा करना। जल्दी मर जाऊँ। संथारा ले लिया अब जल्दी मर जाऊँ। छठा हैकाम की आशंसा। शब्द और रूप काम कहलाते हैं। शब्द और रूप की आशंसा करना। मेरी स्तुतियाँ हों।
सातवाँ प्रकार हैभोग की आशंसा। गंध, रस और स्पर्श की आशंसा। आठवीं आशंसा हैलाभांशसा। लाभ चाहिए, वो चीज मिले। मुझे कीर्ति मिले। नवमाँ-पुजाशंसा लोग मेरी पूजा करें। दसवींसत्कार आशंसा। मेरा सत्कार हो। सम्मान हो आदि। ये आशंसा के दस प्रकार हैं। आशंसा है, वो आध्यात्मिक साधना में प्रतिकूल तत्त्व है। आशंसा रहित साधना हो वो बहुत अच्छी बात हो जाती है। निराशंसा साधना हो। मरने और लंबा जीने की भी इच्छा मत करो। सहज में सत्कार, श्‍लाघा, पूजा हो गई तो हो गई पर लालसा मत करो। तपस्या कर्म निर्जरा के लिए करनी है। न ईहलोक के लिए, न परलोक के लिए। न कीर्ति-सम्मान के लिए तपस्या हो। वैसे ही आचार का पालन करना। आप लोग गृहस्थ हैं, गार्हस्थ्य का जीवन है। गार्हस्थ्य में जो श्रावक्त्व-त्याग है, संयम है, उसके साथ आशंसा नहीं। संथारा भी आत्मा के कल्याण के लिए है, वो ले लिया तो आशंसा यह न हो कि मुझे उच्च देव लोक मिले। संथारे में तो मोक्ष की कामना करनी चाहिए। आचार्य भिक्षु ने कहा हैस्वर्ग! मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए। आशंसा को जिसने छोड़ दिया, संतोष को धार लिया, सुख-शांति का एक आयाम प्राप्त हो गया। आशंसा-कामना दु:ख का कारण बनती है। निष्काम कार्य हो। जहाँ आशंसा-कामना जुड़ती है, वो अध्यात्म की द‍ृष्टि से परित्याज्य चीज होती है। यह एक प्रसंग से समझाया कि व्यक्‍ति छोटी कामना से बड़ी उपलब्धि को खो देता है। दीर्घ को देखो, छोटी को मत देखो। पर को देखो अपर को मत देखो। साधु छोटी चीजों में न उलझे। हम तो परम को देखें। तुच्छ चीजों में न उलझें। ठाणं में बताए इन दस प्रयोगों का जानकर हम यह प्रेरणा ले सकते हैं कि इन दस प्रकार की इच्छाओं में साधु को नहीं उलझना चाहिए। गृहस्थों को भी जितना हो सके इच्छाओं का अल्पीकरण करें। निराशंस-अनिच्छ बनने का प्रयास करें। आचार्य तुलसी ने तो अपने जीवन में आचार्य पद को भी छोड़ दिया था। त्याग है, वो बड़ी बात है। भौतिक आशंसा का त्याग करने की दिशा में हम आगे बढ़ें, यह काम्य है। मुनि प्रसन्‍न कुमार जी ने भीलवाड़ा में पुरुषों में हुई तपस्या का विवरण बताया। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि नवरात्री के दिनों में अनेक लोग साधना करते हैं। सम्यक्-तप की साधना भी चलती है। तप के बाह्य दो प्रकार अनशन और ऊनोदरी के बारे में आगे समझाया। अनशन दो प्रकार का होता हैनिराहारी और अनिराहारी अनशन। ऊनोदरी यानी अल्पता करना। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने कहा कि हम शक्‍ति-पुंज से हम शक्‍ति संपन्‍न होंगे तो सफलता का वरण होगा।