शरीर, वाणी और मन का सदुपयोग करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शरीर, वाणी और मन का सदुपयोग करें : आचार्यश्री महाश्रमण

रसुलाबाद, 31 मई, 2021
शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: इंदौरिया ग्राम से विहार करके रसुलाबाद के संस्कृत ग्लोबल स्कूल में पधारे। मंगल देशना प्रदान करते हुए संस्कृति के संवर्धन और संरक्षक ने फरमाया कि हमारे जीवन में केंद्रीय तत्त्व हैआत्मा। आत्मा मूल तत्त्व है। आत्मा है तो फिर शरीर भी है। वाणी और मन भी है।
शरीर से जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर में कोई प्राणवत्ता नहीं रहती। इसका मतलब है कि आत्मा के होने पर ही शरीर का एक प्राण तत्त्वमय रूप है। वाणी और मन है। आत्मा और शरीर का योग ही जीवन है। जहाँ आत्मा अलग, शरीर अलग हो गया तो मृत्यु हो गई। हमेशा के लिए आत्मा शरीर से अलग हो जाए, पुनर्जन्म न रहे तो मोक्ष हो जाता है।
हमारे जीवन में ये तीन साधन हैं, प्रवृत्ति के लिए शरीर वाणी और मन। शरीर हमारा एक कर्मकर-कार्य का साधन हो गया। वाणी-भाषा के द्वारा हम बोलते हैं, विचारों का आदान-प्रदान कर लेते हैं। बोलना और लिखना दोनों भाषा हैं। लिखकर भी हम अपने विचार दूसरों तक पहुँचा सकते हैं। इसी प्रकार दूसरों को सुनकर या उनके साहित्य आदि को पढ़कर हम उनके विचार जान सकते हैं।
भाषा एक सशक्‍त माध्यम है विचार के आदान-प्रदान का। भाषा एक रथ है और विचार उसमें बैठने वाला महाराजा है। भाषा रूपी रथ पर विचार-रूपी महाराजा यात्रा करता है। भाषा की लब्धि हमें प्राप्त है। हमारा बोलना कैसा होना चाहिए, यह एक महत्त्वपूर्ण बात है। क्यों बोलना, क्या बोलना और कैसे बोलना ये तीन चीजें धातव्य है। इन तीन प्रश्‍नों का उत्तर पाकर बोलते हैं, तो हमारा बोलना अच्छा होता है।
क्यों बोलें? मेरे बोलने से दूसरों को लाभ मिले। जहाँ हमें लगे मेरे बोलने से लाभ होने की संभावना नहीं है, वहाँ नहीं बोलना चाहिए। दूसरों और अपनी भलाई व प्रयोजन हो तो बोलना चाहिए। निष्प्रयोजन नहीं बोलना चाहिए। बोलना भी अच्छा है, तो न बोलना भी अच्छा है। बोलने और न बोलने में विवेक रखना बड़ी बात है। यह अकबर-बीरबल के द‍ृष्टांत से समझाया कि मूर्खों से पल्ला पड़ जाए तो मौन रहना चाहिए।
जो पढ़े-लिखे न हों, अपंडित हो उनकी सभा में न बोलना मौन ही उनका आभूषण है। हमारे ये शब्द भी बड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं। हमारे शब्द कहाँ
निकले यह धातव्य है। ये हमारे होठ हैं,
ये दरवाजे हैं। ये दरवाजे प्राय: तो बंद
रहें, जहाँ जरूरत हो वहाँ खोलने चाहिए। एक दोहा है
वचन रतन, मुख कोट है,
होठ कपाट बनाय।
समझ-समझ हरफ काढ़िये,
मत परवश पड़जाय॥
हम शब्दों को समझकर निकालें, वरना समस्या हो सकती है। जैसे कंजूस आदमी पैसा समझ-समझकर खर्च करता है। बोलने में हमें कंजूस बनकर रहना चाहिए। अनावश्यक नहीं बोलना भी मौन होता है।
क्या बोलें? वह बोलें जिसमें यथार्थ हो। झूठी बात न बोलें। तथ्यपूर्ण बात बोलें। सेठ और चारण के द‍ृष्टांत से समझाया कि बोलकर एक-दूसरे को राजी कर दिया। लेना-देना कुछ नहीं। जो कर सकें वो बोलें, मीठी वाणी बोलें।
तुलसी मीठे वचन से,
सुख उपजत चिंहूओर।
वशीकरण यह मंत्र है,
तजदें वचन कठोर॥
सत्य बालो, प्रिय बोलो। अप्रिय सत्य भी मत बोलो और प्रिय असत्य भी मत बोलो। ये शाश्‍वत धर्म है। यथार्थ और मिष्ट बोलें।
तीसरा प्रश्‍न हैकैसे बोलें? आदमी को बोलने का तरीका भी अच्छा रखना चाहिए। न तो बहुत जल्दीबाजी में बोलें, एकदम धीरे से न बोलें। मध्यम रूप में बोलें ताकि बात सामने वाले के समझ में आ जाए। न ज्यादा धीरे बोलें न ज्यादा तेज बोलें। मौका देखकर तेज या धीरे बोलना चाहिए। संतुलित रूप में बोलना चाहिए।
किसी गोपनीय बात को बनानी है, तो धीरे से बोल दें। पर ज्यादा लोगों के बीच बोलें तो धीरे बोलने से नहीं सुनाई देगा। वक्‍ता को विवेक करके बोलना चाहिए। अवसर देखकर बात करनी चाहिए।
क्यों, क्या और कैसे, इन तीन बातों पर आदमी मनन कर बोलता है, तो उसका बोलना अच्छा हो सकता है। एक सूत्र हैवाणी हमारे कार्य का साधन है। इसी तरह मन से कल्याणकारी सकारात्मक चिंतन करें। किसी के बारे में बुरा न सोचें। शरीर, वाणी और मन का हम बढ़िया उपयोग करते हैं, तो हमारे जीवन का बढ़िया उपयोग हो सकता है।
हम लोग का अहिंसा यात्रा के अंतर्गत इस संस्कृति ग्लोबल स्कूल में आना हुआ है। यहाँ जो विद्यार्थी पढ़ते हैं, उनको और ज्ञान मिले उसके साथ संस्कृति का भी अच्छा ज्ञान मिले। अहिंसा, नैतिकता, नशामुक्‍ति संयम रहे। ये हमारे अध्यात्म की संस्कृति के तत्त्व हैं। इनका भी शिक्षण-प्रशिक्षण विद्यार्थियों को मिलता रहे। ये पढ़ने वाला विद्यार्थी विद्वान ही नहीं संस्कृतिमान भी होगा। विधायक-राजनीति से होना ये भी एक सेवा है। राजनीति में शुद्धता रहे। खूब अच्छा धार्मिक- आध्यात्मिक कार्य करते रहें।
स्कूल के मालिक पूर्व विधायक विरेंद्र सिसोदिया ने पूज्यप्रवर के स्वागत में अपनी भावना व्यक्‍त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि मनन कुमार जी ने किया।