उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य महाश्रमण

आचार्य पादलिप्त

आचार्य पादलिप्त चामत्कारिक विद्याओं के स्वामी थे। पैरों पर औषधियों का लेप लगाकर गगन में यथेच्छ विहरण की उनमें असाधारण क्षमता थी। वे सरस काव्यकार और शातवाहन-वंशी राजा हाल की सभा के अलंकार थे।
पादलिप्त के पिता फुल्लचंद्र कौशला नगरी के विपुल श्रीसंपन्‍न श्रेष्ठी थे। उनकी पत्नी प्रतिमा रूपवती एवं गुणवती महिला थी। उनकी वाक्-माधुरी के सामने सुधा घूँट भी नीरस प्रतीत होती। विविध गुणों से संपन्‍न होने पर भी नि:संतान होने के कारण प्रतिमा चिंतित रहती। अनेकविध औषधियों का सेवन तथा नाना प्रकार के जंत्र-तंत्र आदि भी उसकी चिंता को मिटा न सके। एक बार उसने संतान प्राप्ति हेतु वैरोट्या देवी की आराधना में अष्ट दिन का तप किया। तप के प्रभाव से देवी प्रकट हुई और कहा‘ज्ञान-सागर, बुद्धि-उजागर, लब्धि-संपन्‍न आचार्य नागहस्ती के पाद प्रक्षालित उदक का पान करो, उससे तुम्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी।’
देवी के मार्गदर्शन से प्रतिमा प्रसन्‍न हुई। वह भक्‍ति-भरित हृदय से उपाश्रय में पहुँची। आचार्य नागहस्ती के पद से प्रक्षालित उदक की उपलब्धि उसे अपने सम्मुख आते एक मुनि के द्वारा हुई।
चरणोदक पान करने के बाद प्रतिमा ने नागहस्ती के निकट जाकर दर्शन किए। नागहस्ती ने प्रतिमा से कहा‘तुमने मेरे से दस हाथ दूर चरणोदक पान किया है अत: तुम्हें दस पुत्रों की प्राप्ति होगी। उनमें तुम्हारा प्रथम पुत्र तुम्हारे से दस योजन दूर जाकर महान् विकास को प्राप्त होगा। धर्मसंघ की गौरव-वृद्धि करेगा एवं बृहस्पति के समान वह बुद्धिमान् होगा। तुम्हारी अन्य संतानें भी यशस्वी होंगी।
चंपक, कुसुम आदि नाना सुमनों के मकरंद पान से उन्मुक्‍त मधुपों की ध्वनि के समान गिरा से संभाषण करती हुई प्रतिमा विनम्र होकर बोली‘गुरुदेव, मैं अपनी प्रथम संतान को आपके चरणों में समर्पित करूँगी।’ कृतज्ञता ज्ञापन कर महान् आशा के साथ वह अपने घर लौटी। श्रेष्ठी फुल्लचंद्र भी पत्नी प्रतिमा से समग्र वृत्तांत सुन प्रसन्‍न हुए और गुरुचरणों में प्रथम संतान को समर्पित कर देने की बात को भी उन्होंने पर्याप्त समर्थन दिया।
काल-मर्यादा संपन्‍न होने पर प्रतिमा ने कामदेव से भी अधिक रूपसंपन्‍न, सूर्य से भी अधिक तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया। पुत्र के गर्भकाल में प्रतिमा ने नाग का स्वप्न देखा था। स्वप्न के आधार पर पुत्र का नाम नागेंद्र रखा गया। माता की ममता और पिता के वात्सल्य से परम पुष्टता को प्राप्त बालक दिन-प्रतिदिन विकास को प्राप्त होता रहा एवं परिजनों के स्नेहसिक्‍त वातावरण में वह बढ़ता गया। पुत्र-जन्म से पूर्व ही वचनबद्ध होने के कारण प्रतिमा ने अपने पुत्र को नागहस्ती के चरणों में समर्पित कर दिया। अल्पवय शिशु को नागहस्ती ने प्रतिपालना करने के लिए जननी प्रतिमा के पास ही रखा। आठ वर्ष की अवस्था में बालक को आर्य नागहस्ती ने अपने संरक्षण में लिया। मुनि संग्रामसिंह नागहस्ती के गुरुबंधु थे। आर्य नागहस्ती के आदेश से शुभ मुहूर्त में संग्रामसिंहसूरि ने नागेंद्र को मुनि दीक्षा प्रदान की। मंडल मुनि की सन्‍निधि में बाल मुनि का अध्ययन प्रारंभ हुआ। मुनि नागेंद्र की बुद्धि शीघ्रग्राही थी। एक ही वर्ष में उन्होंने व्याकरण, न्याय, दर्शन, प्रमाण आदि विविध विषयों का गंभीर ज्ञान सफलतापूर्वक अर्जन किया।
एक दिन नागेंद्र जल लाने के लिए गए। गोचरी से निवृत्त होकर वे उपाश्रय में लौटे और ईर्या-पथिकी आलोचना करने के बाद गुरु के समक्ष उन्होंने एक श्‍लोक बोला
अंबं तं बच्छीए अपुप्फियं पुप्फदंतपंतीए।
नवसालिकंजियं नवबहूइ कुडएण मे दिन्‍नं॥
ताम्र की भाँति ईषत् रक्‍ताभ, पुष्पोपम दंतपंक्‍ति की धारिणी नववधू ने मृण्मय पात्र से यह कांजी जल प्रदान किया।
शिष्य के मुख से शृंगारमयी भाषा में काव्य को सुनकर गुरु कुपित हुए। रोषारुण स्वरों में वे बोले‘पलित्तोऽसि’ यह शब्द प्राकृत भाषा का रूप है एवं रागाग्नि-प्रदीप्त भावों का द्योतक है।
(क्रमश:)