आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान का गुरुकुल


समाधि के इच्छुक, तपस्वी श्रमण को आहार सहायक और स्थान का चुनाव बहुत सोच-समझकर करना चाहिए। उसके आहार का आदर्श मितभोजिता हो। मिताहार भी एषणीय होना चाहिए। सहायक या मार्गदर्शक तत्त्ववाद में निष्णात होना चाहिए। क्योंकि तत्त्व-ग्रहण में बुद्धि निपुण न हो तो वह अपने निर्देशन में साधना करने वाले साधक को कठिनाइयों से बाहर नहीं निकाल सकता। तीसरी बात हैस्थान की। साधक के रहने और साधना करने का स्थान भी एकांत में होना चाहिए। क्योंकि अधिक भीड़ और शोर-शराबे में साधना निर्बाध नहीं हो सकती।
जो साधक सूक्ष्म-ध्यान की साधना करता है, उसके लिए उत्तरसाधक रखना बहुत आवश्यक होता है। आचार्य पुष्यमित्र ने महाप्राण-ध्यान की साधना के समय अपने एक शिष्य को उत्तरसाधक के रूप में नियुक्‍त किया था। यद्यपि वह शिष्य आचार्य के गण से मुक्‍त हो चुका था, फिर भी वह योग्य था, इसलिए उत्तरसाधक के रूप में नियुक्‍ति उसी को मिली। आचार्य साधना संलग्न हो गए। सब शिष्यों को इस घटना की जानकारी नहीं थी। उन्होंने उत्तरसाधक मुनि से आचार्य के बारे में पूछताछ की। उसने उन मुनियों को ध्यान-प्रकोष्ठ में जाने से रोक दिया। उनको आचार्य की हत्या का संदेह हो गया। वे राजा के पास पहुँचे। राजा आचार्य का भक्‍त था। मुनियों ने अपने मन का संदेह खोलकर रख दिया। राजा अविलंब वहाँ पहुँचा, जहाँ आचार्य पुष्यमित्र महाप्राण-ध्यान की साधना कर रहे थे। राजा ने आचार्य के दर्शन करने की इच्छा व्यक्‍त की। शिष्य ने कहा‘वे अभी ध्यान में हैं।’ यह बात सुन राजा का मन भी संदिग्ध हो उठा। उसने शिष्य-मुनि पर दबाव डाला। स्थिति की जटिलता को समझ वह भीतर गया और उसने आचार्य के पैर के अंगुष्ठ को दबाया। आचार्य की चेतना लौट आई। वे उठे और बोले‘तुमने मुझे असमय में क्यों उठा दिया?’ शिष्य ने सारी घटना कह सुनाई। राजा तथा अन्य मुनि आचार्य के दर्शन पाकर संतुष्ट हो गए, पर साधना में तात्कालिक अवरोध उपस्थित हो ही गया। और भी कुछ ऐसे प्रसंग घटित हो जाते हैं जो ध्यान-साधना के समय उत्तरसाधक की अपरिहार्यता को प्रमाणित करते हैं।
एक अनुभवी साधक भी अपनी साधना को आगे बढ़ाने में उत्तरसाधक की अपेक्षा अनुभव करता है, वहाँ साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले साधक के लिए तो सहायक या मार्गदर्शक के सतत मार्गदर्शन को नकारा ही नहीं जा सकता। ऐसा मार्गदर्शन गुरुकुलों में प्राप्त होता था। वहाँ गुरु के सतत सान्‍निध्य में रहने से किसी भी बाधा को सरलता से दूर किया जा सकता था।
प्रश्‍न : हमारे देश में प्राचीन समय में गुरुकुल होते थे। अब गुरुकुलों की परंपरा नहीं रही। ऐसी स्थिति में आज का साधक यह जान नहीं सकता कि गुरुकुलों में शिक्षा या साधना की व्यवस्था कैसे होती थी? वहाँ रहने से क्या उपलब्धि होती थी? इस संबंध में आप अपने विचार दे सकेंगे?
उत्तर : प्राचीन काल में शिक्षा और साधना की पूरी व्यवस्था गुरुकुलों में होती थी। वहाँ रहने वाले विद्यार्थी और साधक गुरु के प्रति पूर्णरूप से समर्पित रहते थे। उनकी दिनचर्या नियमित होती थी। उनका रहन-सहन संयमपूर्ण और भोजन सात्त्विक होता था। गुरु के प्रति जो श्रद्धा और समर्पण भाव होता, उससे अनायास ही शिष्य को शक्‍ति-जागरण का अवसर मिल जाता। श्रद्धा और समर्पण के अभाव में न तो शिक्षा का समुचित विकास हो सकता है और न साधना का। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गुरुकुल में रहने वाला अपनी हर उलझन का समाधान गुरु से प्राप्त कर लेता। उसे कभी निराश नहीं होना पड़ता। कठिन-से-कठिन परिस्थिति में गुरु का पथदर्शन पाकर वह संभल जाता। इससे शिक्षा और साधना में किसी प्रकार का अवरोध उपस्थित नहीं होता था।
गुरु पर शिष्य के सर्वांगीण विकास का दायित्व रहता है, इसलिए वह उसकी हर वृत्ति और प्रवृत्ति पर ध्यान रखते हैं। जहाँ दायित्व नहीं होता, वहाँ ध्यान रखने की बात ही प्राप्त नहीं होती। गुरु-शिष्य का संबंध दायित्व ओढ़ने और समर्पित रहने का संबंध है। शिष्य का समर्पण अपने आप ही गुरु को उत्तरदायी बना देता है। जो शिष्य अपना जीवन गुरु को सौंपकर निश्‍चिंत हो जाता है, गुरु उसे हर स्थिति में संभाल लेता है। गुरु की देख-रेख में शिष्य स्वयं संयम और अनुशासित हो जाता है।
आज गुरुकुल की प्राचीन परंपरा दुर्लभ हो गई है। न तो अब इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाले योग्य गुरु मिलते हैं और न योग्य शिष्य। गुरु की योग्यता जहाँ विवादास्पद बन जाती है, वहाँ योग्य शिष्य की उपलब्धि हो भी कैसे सकती है? चक्रवर्ती भरत का दूत बाहुबलि के पास पहुँचकर कहता है‘बहलीश! भरत आपके बड़े भाई हैं। बड़े भाई गुरु-स्थानीय होते हैं। आप पधारें और अपने विनय व्यवहार से ज्येष्ठ भ्राता को प्रसन्‍न करें। बाहुबलि दूत की बात सुन, दो क्षण मौन रहे, फिर बोले
गुरौ गुरु-गुणैर्हीने विनयोऽपि त्रपास्पदम्।
जिस गुरु में गुरुता न हो, जो गुरु के गुणों से रहित हो, उस गुरु का विनय करना भी लज्जास्पद होता है।
गुरु में गुरुता का होना जितना आवश्यक है, उससे भी अधिक आवश्यक हैशिष्य का श्रद्धा-संवलित समर्पण। जहाँ गुरुता और समर्पण नहीं रहता वहाँ न तो शिक्षा की सुंदर व्यवस्था हो सकती है और न साधना की। इस द‍ृष्टि से गुरुकुल-व्यवस्था का अपना मूल्य है। उस व्यवस्था को परिमार्जित रूप में पुन: प्रतिष्ठित किया जा सके तो शिक्षा और साधना-पद्धति में भी नया निखार आ सकता है।